Wednesday, May 27, 2009

स्वर्ग से आयी स्वर्ण गंगा है मंदाकिनी

May 27, 02:08 am
चित्रकूट। चित्रकूट की धरती के गौरव राम का परिचय परमात्मा राम के रूप में आम आदमी से परिचय कराने वाले गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी अमर कृति श्री राम चरित मानस में जब यह पंक्तियां लिखी थी तभी उनके पास इस बात के पूरे प्रमाण मौजूद थे कि यह मां अनुसुइया के दस हजार सालों के कठोर तप से निकली मंदाकिनी कोई साधारण नदी नही हैं। मां मंदाकिनी की स्तुतियां हर एक वेद में हैं मिलती है। यह तो सीधे स्वर्ग से अवतरित होकर आई स्वर्ण गंगा है।
मंदाकिनी के स्वर्ण गंगा होने की पुष्टि श्री मद् भागवत के पंचम स्कंध में हो जाती है। उनके अनुसार जब राजा बलि तीन पग पृथ्वी नाप रहे थे तो उनका बायां पैर स्वर्ग पहुंच गया और उस पैर की स्वर्ण रज को तरल रूप में सृष्टि के निर्माता प्रजापति ब्रह्मा ने अपने कमंडल में ले लिया। इसकी तीन धारायें बनी। पहली गंगा दूसरी भागीरथी और तीसरी मंदाकिनी। यह तीनों नदियां तीनों भुवनों से प्रकट की गई। स्वर्ग से मंदाकिनी, पृथ्वी से गंगा तो पाताल से प्रभावती प्रकट हुई। राजा भागीरथ ने भागीरथ प्रयास कर गंगा को अपने पूर्वजों को तारने के लिये अवतरित कराया तो प्रभावती भूलोक में भागीरथी के नाम से प्रकट हुई।
चित्रकूटांचल में प्रवाहित मां मंदाकिनी को सीधे स्वर्ग से अत्रिप्रिया मां अनुसुइया ने स्वर्ण गंगा का प्रार्दूभूत किया। इसका प्रमाण वेद भी देते हैं 'मंदाकिनी वियद् गंगा इत्यभरे' अर्थात मंदाकिनी ही स्वर्ण गंगा है। इसलिये तमाम वेदों और पुराणों ने मंदाकिनी की स्तुति गायी है और भगवान श्री राम ने खुद ही इस पर स्नान किया व अपने पिता का पिंड दान किया।
क्षेत्र के पुराने महात्मा राम लोचन दास बताते हैं कि भागीरथी गंगा जहां लोगों के पापों को धोती है वहीं मंदाकिनी गंगा लोगों के पापों का भक्षण करती है। देवलोक से आई इस विशेष स्वर्ण गंगा में स्नान कर देवता भी अपने अहोभाग्य समझते हैं। इसलिये मंदाकिनी गंगा से भी श्रेष्ठ है।

Monday, May 25, 2009

चिलचिलाती धूप में श्रद्धालुओं ने मंदाकिनी में लगाई डुबकी

May 25, 02:18 am
चित्रकूट। चिलचिलाती धूप भी श्रद्धालुओं की आस्था डिगा न सकी। ज्येष्ठ मास की अमावस्या के मौके पर लाखों श्रद्धालुओं ने मंदाकिनी में डुबकी लगायी और फिर भगवान मत्स्यगजयेंद्र नाथ का जलाभिषेक कर भगवान कामतानाथ की परिक्रमा की। वट सावित्री अमावस्या होने से सुहागिनों ने अपने पति के दीर्घायु की कामना के साथ वट वृक्ष की पूजा अर्चना की।
भीषण गर्मी के बावजूद अमावस्या में पूरे दिन श्रद्धालुओं की भीड़ धर्मनगरी में दिखी। दोपहर में परिक्रमा मार्ग में कुछ कम भीड़ दिखी, परंतु शाम होते ही श्रद्धालुओं का फिर से तांता लग गया। सैकड़ों लोगों ने लेटी परिक्रमा भी की। रामघाट के बाद कामतानाथ प्रमुख द्वार में भीड़ का सर्वाधिक दबाव देखा गया। परिक्रमा करने के बाद श्रद्धालुओं ने हनुमान धारा, स्फटिक शिला, सती अनुसूइया व गुप्त गोदावरी पहुंचकर दर्शन किये। परिक्रमा मार्ग व मेला क्षेत्र में प्रशासन ने पेयजल व्यवस्था की थी। हालांकि मुख्यालय के बस स्टैड व शिवरामपुर रेलवे स्टेशन पर यात्री पानी के लिये भटकते दिखे। कर्वी रेलवे स्टेशन में श्रीनाथ सेवा समिति ने यात्रियों को पेयजल पिलाया। जिसमें डा. प्रकाश दीनानाथ, आनंद राव तैलंग व लल्लूराम शुक्ल आदि मौजूद रहे। तीर्थ यात्रियों के आवागमन के लिये दो मेला स्पेशल ट्रेन व एक दर्जन अतिरिक्त परिवहन निगम की बसें संचालित की गई। जिन्हे ठसाठस भरकर आते जाते देखा गया।
सुहागिनों ने पूजा वट वृक्ष
ज्येष्ठ अमावस्या पर ही सुहागिनें अपने पति की दीर्घायु के लिये बरगद के वृक्ष की पूजा अर्चना की। मुख्यालय में सुबह से ही महिलाओं ने पूजा की थाल सजाकर बरगद वृक्ष के पास पहुंची। पूरे विधिविधान से पूजा करने के बाद महिलाओं ने सावित्री सत्यवान की कथा का श्रवण किया। कई महिलाओं ने परिवार सहित बरगद के नीचे बैठकर खाना बनाकर भी खाया।
टैक्सी वालों ने काटी चांदी
भीषण गर्मी में पैदल चलना मुश्किल था इससे लोग टैपो टैक्सी से आ जा रहे थे। श्रद्धालुओं की मजबूरी का टैक्सी चालकों ने जमकर फायदा उठाया। रामघाट से स्टेशन तक 15 रुपये सवारी तक वसूला गया। कई जगह इन गाड़ियों ने जाम लगाया मगर पुलिस वालों ने इन्हे हटाना गवारा नहीं समझा

Saturday, May 23, 2009

रावण के वंशजों ने किया लंकेश का श्राद्ध

जोधपुर। जोधपुर शहर में लंकाधिपति रावण के वंशजों ने बुधवार को श्राद्ध पक्ष की दशमी को रावण का श्राद्ध किया तथा अमरनाथ मंदिर परिसर में उसकी मूर्ति की विशेष पूजा अर्चना की।
अक्षय ज्योति अनुसंधान केंद्र के सचिव अजय दवेके अनुसार दवे,गोधा एवं श्रीमाली समाज के लोगों ने गत वर्ष स्थापित रावण मंदिर में पूजा-अर्चना की तथा बाद में हमेकरणनाडी पर तर्पण एवं पिंडदान किया। इसके बाद रावण की प्रतिमा एवं उसकी कुलदेवीमां खारानाको खीर, पूडी का भोग लगाया तथा ब्राह्माणों को भोजन कराया।
उन्होंने बताया कि श्रीलंका में राम-रावण युद्ध में रावण के मारे जाने पर उसके वंशज यहां जोधपुर आकर बस गए थे और ये लोग रावण को प्रकांड पंडित एवं विद्वान मानते हुए उसमें अटूट आस्था रखते हैं। हर साल रावण का श्राद्ध भी किया जाता हैं। दशहरा के पर्व पर जहां खुशी मनाई जाती हैं तथा रावण दहन किया जाता हैं वहीं हमारे समाज के लोग इस दिन को सूतक मानते हुए स्नान करते हैं।
श्री दवेने कहा कि लंकाधिपति की सुसराल भी जोधपुर मानी जाती हैं तथा उनकी रानी मंदोदरी का संबंध यहां की राजधानी मंडोरसे माना जाता हैं। उन्होंने कहा कि रावण के प्रति इसी आस्था के कारण ही गत वर्ष अमरनाथ मंदिर परिसर में रावण के मंदिर का निर्माण कराया गया और उसकी पूजा अर्चना की जाती है।

दक्षिण-पूर्व एशिया के मुस्लिम देशों में रची बसी है रामकथा

नई दिल्ली। भारतीय संस्कृति के प्राणाधरभगवान राम दक्षिण-पूर्व एशिया के मुस्लिम देशों की संस्कृति में भी रचे बसे हैं। वहां रामकथा विभिन्न रूपों में प्रचलित है और लोकजीवनसे इतनी गहराई तक जुडी हुई है कि वह उनकी संस्कृति का अभिन्न अंग बन गई है।
दक्षिण-पूर्व एशिया में रामकथा विषय पर शोध कार्य कर रहे साहित्य के सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से अलंकृत संस्कृत के प्रकांड विद्वान प्रोफेसर डा. सत्यव्रतशास्त्री ने दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में रामकथा के विभिन्न प्रचलित रूपों, उसके विविध आयामों तथा वहां की लोक संस्कृति में रामायण के महत्व पर यहां विस्तार से बातचीत की। उन्होंने बताया कि म्यांमार, थाइलैंड, मलेशिया, कम्बोडिया, लाओसआदि देशों में रामकथा विभिन्न नामों से प्रचलित है।
थाइलैंड में इसे रामकियनअर्थात् रामकीर्ति,कम्बोडिया में रामकेररामकथा, म्यांमार में रामवत्थुरामवस्तुऔर रामाथग्गियन,मलेशिया में हेकायतश्रीराम श्रीराम कथा तथा लाओसमें फ्रलकफ्ररामयानी श्री लक्ष्मण-श्रीराम कहा जाता है। सभी उदात्तपात्रों के नाम के आगे फ्रयानीश्री लगाना आवश्यक होता है। जैसे फ्रआतिथआदित्य, फ्रचानश्रीचंद्र। इसी तरह उदात्तमहिला पात्रों के नाम के आगे नांग्यानी श्रेष्ठ लगाना जरूरी है। जैसे नांग्सीदासीता।
इस संदर्भ में उन्होंने एक दिलचस्प बात बताई कि दक्षिण पूर्व एशिया के अधिकतर देश बौद्ध या मुस्लिम धर्म के अनुयायी हैं इसलिए मलेशिया की रामायण में रावण को भगवान् शंकर के बजाय अल्लाह से वर मांगते दिखाया गया है। उन्होंने कहा कि इस सिलसिले में यह भी बताना प्रासंगिक होगा कि केवल लाओसमें रामकथा के शीर्षक में श्रीराम के नाम के आगे लक्ष्मण का नाम आता है। इसके अलावा सिर्फ इंडोनेशिया में ही रामकथा के लिए रामायण शब्द का इस्तेमाल होता है। वहां इसे रामायण ककविन,रामायण काव्य कहा जाता है।

छह महीने रहें चित्रकूट

विंध्यपर्वत के उत्तर में है चित्रकूट धाम। यह न केवल एक धार्मिक स्थान है, बल्कि अपनी प्राकृतिक खूबसूरती के कारण भी काफी चर्चित है।
आध्यात्मिक शांति :चित्रकूट पर्वत मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश, दोनों राज्यों की सीमाओं को घेरता है। वनवास के दौरान भगवान राम ने अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ सबसे अधिक समय तक यहीं निवास किया था। यात्रियों को चित्रकूट गिरि, स्फटिक शिला, भरत कूप, चित्रकूट-वन, गुप्त गोदावरी,मंदाकिनी [पयस्विनी] की यात्रा करने से आध्यात्मिक शांति मिलती है।
चित्रकूट गिरि को कामद गिरि भी कहते हैं, क्योंकि इस पर्वत को राम की कृपा प्राप्त हुई थी। राम-भक्तों का विश्वास है कि कामद गिरि के दर्शन मात्र से दुख समाप्त हो जाते हैं। इसका एक और नाम कामतानाथभी है। अनुसूइयाकी तपोभूमि :चित्रकूट में पयस्विनी नदी है, जिसे मंदाकिनी भी कहते हैं। इसी के किनारे स्फटिक शिला पर बैठ कर राम ने मानव रूप में कई लीलाएं कीं। इसी स्थान पर राम ने फूलों से बने आभूषण से सीता को सजाया था। पयस्विनी के बायीं ओर प्रमोद वन है, जिससे आगे जानकी कुंड है। यहां स्थित अनुसूइयाआश्रम महर्षि अत्रि और उनकी पत्नी अनुसूइयाकी तपोभूमि कहलाती है। कहते हैं कि अत्रि की प्यास बुझाने के लिए अपने तप से अनुसूइयाने पयस्विनी को प्रगट कर लिया। गुप्त गोदावरीकी विशाल गुफामें सीताकुंड बना हुआ है। कामदगिरिके पीछे लक्ष्मण पहाडी स्थित है, जहां एक लक्ष्मण मंदिर है। इसके अलावा, चित्रकूट में बांके सिद्ध, पम्पासरोवर, सरस्वती नदी (झरना), यमतीर्थ,सिद्धाश्रम,हनुमान धारा आदि भी है। राम-भक्त कहते हैं कि राम जिस स्थान पर रहते हैं, वह स्थान ही उनके लिए अयोध्या के समान हो जाता है।
पयस्विनी चित्रकूट की अमृतधारा के समान है। मंदाकिनी नाम से जानी जाने वाली पयस्विनी को कामधेनु और कल्पतरु के समान माना जाता है। शिवपुराणके रुद्रसंहितामें भी पयस्विनी का उल्लेख है। तुलसी-रहीम की मित्रता :वाल्मीकि मुनि ने चित्रकूट की खूब प्रशंसा की है। तुलसीदास ने माना है कि यदि कोई व्यक्ति छह मास तक पयस्विनी के किनारे रहता है और केवल फल खाकर राम नाम जपता रहता है, तो उसे सभी तरह की सिद्धियां मिल जाती हैं।
रामायण और गीतावलीमें भी चित्रकूट की महिमा बताई गई है। दरअसल, यही वह स्थान है, जहां भरत राम से मिलने आते हैं और पूरी दुनिया के सामने अपना आदर्श प्रस्तुत करते हैं। यही वजह है कि इस स्थान पर तुलसी ने भरत के चरित्र को राम से अधिक श्रेष्ठ बताया है। देश में सबसे पहला राष्ट्रीय रामायण मेला चित्रकूट में ही शुरू किया गया। तुलसी-रहीम की मित्रता की कहानी आज भी यहां बडे प्रेम से न केवल कही, बल्कि सुनी भी जाती है।
रहीम ने कहा-जा पर विपदा परत है, सो आवत यहिदेश।
उल्लेखनीय है कि नानाजी देशमुख का ग्रामोदय विश्वविद्यालय, आरोग्य/धाम, विकलांगों के लिए स्वामी रामभद्राचार्यविश्वविद्यालय यहीं स्थित है।

सुनामी को थाम लेता है रामसेतु

इसे विचित्र संयोग ही कहेंगे। रामसेतु बचाने के लिए देश भर में चला आंदोलन बुधवार के दिन में सबसे बड़ी खबर बना। शाम होते-होते दूसरी खबर ने बड़ी खबर का रूप धर लिया। इंडोनेशिया में भयावह भूकंप। इसके बाद भारतीय गृह मंत्रालय का रेड अलर्ट जारी करना। अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में सुनामी आने की चेतावनी। पहली नज़र में अलग-अलग-सी दिखने वाली दोनों खबरों में अंतर्सबंध है। इसके लिए वैज्ञानिकों द्वारा दी गई चेतावनियों को धैर्य और ध्यान से समझना होगा।
बंगाल की खाड़ी और अरब सागर के बीच शार्टकट समुद्री रास्ता तैयार करने की योजना का नाम है सेतुसमुद्रम परियोजना। इस परियोजना पर अमल तभी हो सकेगा जब रामसेतु (एडम ब्रिज) के बीच का 300 मीटर का हिस्सा तोड़ा जाए। रामसेतु सेतुसमुद्रम परियोजना के बीच में पड़ता है।
इसी रामसेतु को बचाने के लिए आंदोलन चल रहा है। इसी रामसेतु ने वर्ष 2004 में सुनामी लहरों के छक्के छुड़ाए थे। हजारों लोगों की जान बचाई थी। विश्वास न हो तो अंतरराष्ट्रीय सुनामी सोसायटी के अध्यक्ष और भारतीय सरकार के सुनामी सलाहकार सत्यम मूर्ति की जुबानी सुनिए- 'दिसंबर 2004 की उस काली सुबह भारत और श्रीलंका के बीच भी खौफनाक लहरों ने कहर ढाने के इरादे से घुसपैठ किया। पर यह क्या..! सामने सीना ताने रामसेतु खड़ा मिला। पत्थरों और बालू से बने इस वज्र सेतु श्रृंखला से भूकंपीय लहरें टकराई। कुछ क्षण को सब कुछ थमा। कौन हटे, कौन डिगे, कौन झुके और कौन मुडे़? पर रामसेतु जस का तस। मुड़ीं लहरें। वे जितनी तेजी से टकराई, उसी तेजी से नए राह को ओर निकलीं, खुले समुद्र की ओर। बाकी बची लहरें दो तरफ छितरा गई- कुछ श्रीलंका की ओर, बाकी केरल के तटीय इलाके की तरफ। पर इन छितराई लहरों की ऊर्जा, आवेग और आक्रामकता तब तक नष्ट हो चुकी थी। कह सकते हैं, रामसेतु की इस श्रृंखला ने उस दिन केरल को बचा लिया।'
नए समुद्री शार्टकट के लिए एक न्यूनतम समुद्रीय गहराई का प्रस्तावित समुद्री रास्ते में हर जगह होना जरूरी है। पर रामसेतु वाले इलाके में गहराई की जगह वज्र जैसी चंट्टानें हैं। इसे न हटाया गया तो जहाजों की चौबीसों घंटे आवाजाही के लिए नया समुद्री शार्टकट बन ही नहीं सकता। इससे एक सीधा सवाल खड़ा होता है- समुद्री शार्ट कट विकसित कर व्यापार-वाणिज्य में तेजी लाने व परिवहन समय बचाने से क्या कम महत्वपूर्ण है सुनामी को रोका जाना? पर्यावरणविद् और वैज्ञानिक बहुत साफ-कहते हैं- 'दुनिया शार्टकट की राह अपनाकर तरक्की करने में जाने कितनी मुसीबतें पहले ही गले लगा चुकी है। ग्लोबल वार्मिग, ओजोन परत, पिघलते ग्लेशियर और पहाड़, मौसम का मनमानापन..। इनसे पूरी दुनिया खतरे में है। अब नई मुसीबत मोल लेने की क्या जरूरत?'
सेतुसमुद्रम परियोजना पर जनवरी 2005 से ही निगाह रखे वैज्ञानिक व सुनामी विशेषज्ञ सत्यम मूर्ति साफ शब्दों में कहते हैं-'खतरनाक होगा रामसेतु तोड़ना।' सत्यम मूर्ति सिर्फ अकेले नहीं हैं। हर तरह के वैज्ञानिकों का कहना है कि परियोजना के बारे में सोचने के पहले पर्याप्त और गहन शोध नहीं कराया गया। भूगर्भवेत्ताओं का कहना है कि इस क्षेत्र में सक्रिय ज्वालामुखी और गतिमान प्रवाल भित्तिायां हैं। इसलिए यहां प्राकृतिक या पूर्वस्थापित संरचना से छेड़छाड़ ठीक न होगा। पारिस्थितिकी विशेषज्ञ दावा करते हैं कि सेतु बंगाल की खाड़ी के अनियमित प्रवाहों को रोकता है। इससे समुद्री जीवन की सहजता बरकरार रहती है। सेतु के तोड़े जाने से समुद्र की संवेदनशीलता असंतुलित पर असर पड़ेगा।
जियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया के पूर्व निदेशक एवं चेन्नई स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट आफ ओसियन टेक्नोलाजी के शिक्षक एस. बद्रीनारायणन ने कहा कि प्रवाल भित्तिायां को काटा जाना अनर्थकारी होगा। ये भित्तिायां कई सामुद्रिक हलचलों को पुष्ट करती हैं। ये कई जीवों के उद्भव की कहानी भी कहती हैं। इन्हीं भित्तिायों से संकेत मिलता है कि हिंद महासागर में पानी का प्रवाह किस तरह होता रहा है। सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि श्रीलंका के भी पर्यावरणविदें का स्पष्ट तौर पर मानना है कि सेतुसमुद्रम परियोजना से समुद्र के संवेदनशील पर्यावरण को नुकसान पहुंचेगा। जियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया और इंडियन रेयर अथर््स से पूर्व में जुड़े रहे वैज्ञानिकों ने इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया कि सरकार ने परियोजना पर मुहर लगाने से पहले उनके संगठनों से संपर्क नहीं किया। वैज्ञानिकों और गैर-सरकारी संगठनों का कहना है कि पिछली दफे आए सुनामी के बाद सरकार को यहां शोध कार्य कराना चाहिए था ताकि वास्तविकताओं का खुलासा हो। जीएसआई के पूर्व निदेशक आर. गोपालाकृष्णन कहते हैं कि इस रामसेतु के चलते 2004 में हजारों लोगों की जानें बची थीं।
सुनामी विशेषज्ञ सत्यम मूर्ति उस दिन को याद करते हैं जब उन्हें सेतुसमुद्रम परियोजना की ओर से भेजा गया एक रजिस्टर्ड पत्र मिला। वे उन दिनों कनाडा में ओंट्टावा विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य कर रहे थे। हालांकि पत्र काफी देर में पहुंचा और इसमें सेतुसमुद्रम परियोजना पर राय देने की निश्चित तारीख बीत चुकी थी। इसी बीच सुनामी प्रकरण हुआ। इस पर शोध किया। बाद में मैंने अपनी राय भेज दी। उन्होंने बताया कि मैने पत्र में लिखा कि अगर अगली बार सुनामी आया तो रामसेतु तोड़कर बनाए गए सेतुसमुद्रम के चलते तटीय इलाकों में तबाही मच जाएगी। सुनामी के कारण दौड़ने वाली ऊंची-ऊंची हाहाकारी समुद्री लहरों को तब श्रीलंका-भारत समुद्री क्षेत्र के बीच थामने वाला कोई नहीं होगा। मूर्ति कहते हैं कि उन्होंने साफ तौर पर पत्र में अपनी बात कह दी- 'खतरा वास्तविक है, परियोजना पुनर्निधारित करें।'

5114 ईसापूर्व 10 जनवरी को पैदा हुए थे राम

मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की ऐतिहासिकता को चुनौती देनेवालों को चुनौती देता एक शोध सामने आया है , जो सिद्ध करता है कि राम पौराणिक नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व थे। उनका जन्म 5114 ईसापूर्व 10 जनवरी को हुआ था। इस तरह अगली 10 जनवरी को राम के जन्म के 7122 साल पूरे हो जाएंगे।
श्री राम के बारे में यह शोध चेन्नई की एक गैरसरकारी संस्था भारत ज्ञान द्वारा पिछले छह वर्षो में किया गया है। मुंबई में अनेक वैज्ञानिकों, विद्वानों, व्यवसाय जगत की हस्तियों के सामने इस शोध से संबंधित तथ्यों पर प्रकाश डालते हुए इसके संस्थापक ट्रस्टी डीके हरी ने एक समारोह में बताया कि इस शोध में वाल्मीकि रामायण को मूल आधार मानते हुए अनेक वैज्ञानिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक, ज्योतिषीय और पुरातात्विक तथ्यों की मदद ली गई है। जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि राम हमारे गौरवशाली इतिहास का ही एक अंग थे। इस समारोह का आयोजन भारत ज्ञान ने आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर की संस्था आर्ट आफ लिविंग के साथ मिलकर किया था।
शोध से संबंधित प्रस्तुतिकरण के बाद इसका सीडी एवं वेबसाइट लांच करते हुए श्री श्री रविशंकर ने कहा कि हमारे देश को ऐसे वैज्ञानिक शोधों की आवश्यकता है, जो सिलसिलेवार तथ्यों पर आधारित हों और हमारी हमारी प्राचीन परंपराओं का खुलासा करते हों। लोगों से ऐसे शोधों को प्रोत्साहन देने की अपील करते हुए श्री श्री रविशंकर ने कहा कि हमें ऐसे तथ्यों के आधार पर दूसरों के सामने अपनी बात रखनी चाहिए। अन्यथा लोग हमारे इतिहास को पौराणिक कहानियां ही बताते रहेंगे। गौरतलब है कि कुछ वर्ष पूर्व वाराणसी स्थित श्रीमद् आद्यजगद्गुरु शंकराचार्य शोध संस्थान के संस्थापक स्वामी ज्ञानानंद सरस्वती ने भी अनेक संस्कृत ग्रंथों के आधार पर राम और कृष्ण की ऐतिहासिकता को स्थापित करने का दावा किया था।
श्री श्री रविशंकर के अनुसार ऐसे शोधों में और ज्यादा वैज्ञानिकों को हिस्सा लेना चाहिए। उन्होंने कहा कि ऐसे शोधों परखुलकर बहस होनी चाहिए। क्योंकि बिना बहस के इनके परिणामों को स्थापित नहीं किया जा सकता। उन्होंने कहा कि मैं वैज्ञानिकों को ऐसे शोधों पर अधिक से अधिक सवाल पूछने के लिए प्रोत्साहित करूंगा। लेकिन उन्हें अपनी शुरुआत 'मैं किसी बात से सहमत नहीं हूं'ं से नहीं करनी चाहिए। खुले दिमाग से बहस में हिस्सा लेकर ही किसी तथ्य की सच्चाई तक पहुंचा जा सकता है।

रामसेतु तथा राम के युग की प्रामाणिकता

हम भारतीय विश्व की प्राचीनतम सभ्यता के वारिस है तथा हमें अपने गौरवशाली इतिहास तथा उत्कृष्ट प्राचीन संस्कृति पर गर्व होना चाहिए। किंतु दीर्घकाल की परतंत्रता ने हमारे गौरव को इतना गहरा आघात पहुंचाया कि हम अपनी प्राचीन सभ्यता तथा संस्कृति के बारे में खोज करने की तथा उसको समझने की इच्छा ही छोड़ बैठे। परंतु स्वतंत्र भारत में पले तथा पढ़े-लिखे युवक-युवतियां सत्य की खोज करने में समर्थ है तथा छानबीन के आधार पर निर्धारित तथ्यों तथा जीवन मूल्यों को विश्व के आगे गर्वपूर्वक रखने का साहस भी रखते है। श्रीराम द्वारा स्थापित आदर्श हमारी प्राचीन परंपराओं तथा जीवन मूल्यों के अभिन्न अंग है। वास्तव में श्रीराम भारतीयों के रोम-रोम में बसे है। रामसेतु पर उठ रहे तरह-तरह के सवालों से श्रद्धालु जनों की जहां भावना आहत हो रही है,वहीं लोगों में इन प्रश्नों के समाधान की जिज्ञासा भी है। हम इन प्रश्नों के उत्तर खोजने का प्रयत्‍‌न करे:- श्रीराम की कहानी प्रथम बार महर्षि वाल्मीकि ने लिखी थी। वाल्मीकि रामायण श्रीराम के अयोध्या में सिंहासनारूढ़ होने के बाद लिखी गई। महर्षि वाल्मीकि एक महान खगोलविद् थे। उन्होंने राम के जीवन में घटित घटनाओं से संबंधित तत्कालीन ग्रह, नक्षत्र और राशियों की स्थिति का वर्णन किया है। इन खगोलीय स्थितियों की वास्तविक तिथियां 'प्लैनेटेरियम साफ्टवेयर' के माध्यम से जानी जा सकती है। भारतीय राजस्व सेवा में कार्यरत पुष्कर भटनागर ने अमेरिका से 'प्लैनेटेरियम गोल्ड' नामक साफ्टवेयर प्राप्त किया, जिससे सूर्य/ चंद्रमा के ग्रहण की तिथियां तथा अन्य ग्रहों की स्थिति तथा पृथ्वी से उनकी दूरी वैज्ञानिक तथा खगोलीय पद्धति से जानी जा सकती है। इसके द्वारा उन्होंने महर्षि वाल्मीकि द्वारा वर्णित खगोलीय स्थितियों के आधार पर आधुनिक अंग्रेजी कैलेण्डर की तारीखें निकाली है। इस प्रकार उन्होंने श्रीराम के जन्म से लेकर 14 वर्ष के वनवास के बाद वापस अयोध्या पहुंचने तक की घटनाओं की तिथियों का पता लगाया है। इन सबका अत्यंत रोचक एवं विश्वसनीय वर्णन उन्होंने अपनी पुस्तक 'डेटिंग द एरा ऑफ लार्ड राम' में किया है। इसमें से कुछ महत्वपूर्ण उदाहरण यहां भी प्रस्तुत किए जा रहे है।
श्रीराम की जन्म तिथि
महर्षि वाल्मीकि ने बालकाण्ड के सर्ग 18 के श्लोक 8 और 9 में वर्णन किया है कि श्रीराम का जन्म चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को हुआ। उस समय सूर्य,मंगल,गुरु,शनि व शुक्र ये पांच ग्रह उच्च स्थान में विद्यमान थे तथा लग्न में चंद्रमा के साथ बृहस्पति विराजमान थे। ग्रहों,नक्षत्रों तथा राशियों की स्थिति इस प्रकार थी-सूर्य मेष में,मंगल मकर में,बृहस्पति कर्क में, शनि तुला में और शुक्र मीन में थे। चैत्र माह में शुक्ल पक्ष नवमी की दोपहर 12 बजे का समय था।
जब उपर्युक्त खगोलीय स्थिति को कंप्यूटर में डाला गया तो 'प्लैनेटेरियम गोल्ड साफ्टवेयर' के माध्यम से यह निर्धारित किया गया कि 10 जनवरी, 5114 ई.पू. दोपहर के समय अयोध्या के लेटीच्यूड तथा लांगीच्यूड से ग्रहों, नक्षत्रों तथा राशियों की स्थिति बिल्कुल वही थी, जो महर्षि वाल्मीकि ने वर्णित की है। इस प्रकार श्रीराम का जन्म 10 जनवरी सन् 5114 ई. पू.(7117 वर्ष पूर्व)को हुआ जो भारतीय कैलेण्डर के अनुसार चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि है और समय 12 बजे से 1 बजे के बीच का है।
श्रीराम के वनवास की तिथि
वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड (2/4/18) के अनुसार महाराजा दशरथ श्रीराम का राज्याभिषेक करना चाहते थे क्योंकि उस समय उनका(दशरथ जी) जन्म नक्षत्र सूर्य, मंगल और राहु से घिरा हुआ था। ऐसी खगोलीय स्थिति में या तो राजा मारा जाता है या वह किसी षड्यंत्र का शिकार हो जाता है। राजा दशरथ मीन राशि के थे और उनका नक्षत्र रेवती था ये सभी तथ्य कंप्यूटर में डाले तो पाया कि 5 जनवरी वर्ष 5089 ई.पू.के दिन सूर्य,मंगल और राहु तीनों मीन राशि के रेवती नक्षत्र पर स्थित थे। यह सर्वविदित है कि राज्य तिलक वाले दिन ही राम को वनवास जाना पड़ा था। इस प्रकार यह वही दिन था जब श्रीराम को अयोध्या छोड़ कर 14 वर्ष के लिए वन में जाना पड़ा। उस समय श्रीराम की आयु 25 वर्ष (5114- 5089) की निकलती है तथा वाल्मीकि रामायण में अनेक श्लोक यह इंगित करते है कि जब श्रीराम ने 14 वर्ष के लिए अयोध्या से वनवास को प्रस्थान किया तब वे 25 वर्ष के थे।
खर-दूषण के साथ युद्ध के समय सूर्यग्रहण
वाल्मीकि रामायण के अनुसार वनवास के 13 वें साल के मध्य में श्रीराम का खर-दूषण से युद्ध हुआ तथा उस समय सूर्यग्रहण लगा था और मंगल ग्रहों के मध्य में था। जब इस तारीख के बारे में कंप्यूटर साफ्टवेयर के माध्यम से जांच की गई तो पता चला कि यह तिथि 5 अक्टूबर 5077 ई.पू. ; अमावस्या थी। इस दिन सूर्य ग्रहण हुआ जो पंचवटी (20 डिग्री सेल्शियस एन 73 डिग्री सेल्शियस इ) से देखा जा सकता था। उस दिन ग्रहों की स्थिति बिल्कुल वैसी ही थी, जैसी वाल्मीकि जी ने वर्णित की- मंगल ग्रह बीच में था-एक दिशा में शुक्र और बुध तथा दूसरी दिशा में सूर्य तथा शनि थे।
अन्य महत्वपूर्ण तिथियां
किसी एक समय पर बारह में से छह राशियों को ही आकाश में देखा जा सकता है। वाल्मीकि रामायण में हनुमान के लंका से वापस समुद्र पार आने के समय आठ राशियों, ग्रहों तथा नक्षत्रों के दृश्य को अत्यंत रोचक ढंग से वर्णित किया गया है। ये खगोलीय स्थिति श्री भटनागर द्वारा प्लैनेटेरियम के माध्यम से प्रिन्ट किए हुए 14 सितंबर 5076 ई.पू. की सुबह 6:30 बजे से सुबह 11 बजे तक के आकाश से बिल्कुल मिलती है। इसी प्रकार अन्य अध्यायों में वाल्मीकि द्वारा वर्णित ग्रहों की स्थिति के अनुसार कई बार दूसरी घटनाओं की तिथियां भी साफ्टवेयर के माध्यम से निकाली गई जैसे श्रीराम ने अपने 14 वर्ष के वनवास की यात्रा 2 जनवरी 5076 ई.पू.को पूर्ण की और ये दिन चैत्र महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी ही था। इस प्रकार जब श्रीराम अयोध्या लौटे तो वे 39 वर्ष के थे (5114-5075)।
वाल्मीकि रामायण के अनुसार श्रीराम की सेना ने रामेश्वरम से श्रीलंका तक समुद्र के ऊपर पुल बनाया। इसी पुल को पार कर श्रीराम ने रावण पर विजय पाई। हाल ही में नासा ने इंटरनेट पर एक सेतु के वो अवशेष दिखाए है, जो पॉक स्ट्रेट में समुद्र के भीतर रामेश्वरम(धनुषकोटि) से लंका में तलाई मन्नार तक 30 किलोमीटर लंबे रास्ते में पड़े है। वास्तव में वाल्मीकि रामायण में लिखा है कि विश्वकर्मा की तरह नल एक महान शिल्पकार थे जिनके मार्गदर्शन में पुल का निर्माण करवाया गया। यह निर्माण वानर सेना द्वारा यंत्रों के उपयोग से समुद्र तट पर लाई गई शिलाओं, चट्टानों, पेड़ों तथा लकड़ियों के उपयोग से किया गया। महान शिल्पकार नल के निर्देशानुसार महाबलि वानर बड़ी-बड़ी शिलाओं तथा चट्टानों को उखाड़कर यंत्रों द्वारा समुद्र तट पर ले आते थे। साथ ही वो बहुत से बड़े-बड़े वृक्षों को, जिनमें ताड़, नारियल,बकुल,आम,अशोक आदि शामिल थे, समुद्र तट पर पहुंचाते थे। नल ने कई वानरों को बहुत लम्बी रस्सियां दे दोनों तरफ खड़ा कर दिया था। इन रस्सियों के बीचोबीच पत्थर,चट्टानें, वृक्ष तथा लताएं डालकर वानर सेतु बांध रहे थे। इसे बांधने में 5 दिन का समय लगा। यह पुल श्रीराम द्वारा तीन दिन की खोजबीन के बाद चुने हुए समुद्र के उस भाग पर बनवाया गया जहां पानी बहुत कम गहरा था तथा जलमग्न भूमार्ग पहले से ही उपलब्ध था। इसलिए यह विवाद व्यर्थ है कि रामसेतु मानव निर्मित है या नहीं, क्योंकि यह पुल जलमग्न, द्वीपों, पर्वतों तथा बरेतीयों वाले प्राकृतिक मार्गो को जोड़कर उनके ऊपर ही बनवाया गया था।

Friday, May 8, 2009

मेरठ से भी 15 साल पहले आजादी की क्रांति का सूत्रपात हुआ था चित्रकूट में

इतिहास की इबारत गवाही देती है कि हिंदुस्तान की आजादी के प्रथम संग्राम की ज्वाला मेरठ की छावनी में भड़की थी। किन्तु इन ऐतिहासिक तथ्यों के पीछे एक सचाई गुम है, वह यह कि आजादी की लड़ाई शुरू करने वाले मेरठ के संग्राम से भी 15 साल पहले बुन्देलखंड की धर्मनगरी चित्रकूट में एक क्रांति का सूत्रपात हुआ था। पवित्र मंदाकिनी के किनारे गोकशी के खिलाफ एकजुट हुई हिंदू-मुस्लिम बिरादरी ने मऊ तहसील में अदालत लगाकर पांच फिरंगी अफसरों को फांसी पर लटका दिया। इसके बाद जब-जब अंग्रेजों या फिर उनके किसी पिछलग्गू ने बुंदेलों की शान में गुस्ताखी का प्रयास किया तो उसका सिर कलम कर दिया गया। इस क्रांति के नायक थे आजादी के प्रथम संग्राम की ज्वाला मेरठ के सीधे-साधे हरबोले। संघर्ष की दास्तां को आगे बढ़ाने में बुर्कानशीं महिलाओं की ‘घाघरा पलटन’ की भी अहम हिस्सेदारी थी।आजादी के संघर्ष की पहली मशाल सुलगाने वाले बुन्देलखंड के रणबांकुरे इतिहास के पन्नों में जगह नहीं पा सके, लेकिन उनकी शूरवीरता की तस्दीक फिरंगी अफसर खुद कर गये हैं। अंग्रेज अधिकारियों द्वारा लिखे बांदा गजट में एक ऐसी कहानी दफन है, जिसे बहुत कम लोग जानते हैं। गजेटियर के पन्ने पलटने पर मालूम हुआ कि वर्ष 1857 में मेरठ की छावनी में फिरंगियों की फौज के सिपाही मंगल पाण्डेय के विद्रोह से भी 15 साल पहले चित्रकूट में क्रांति की चिंगारी भड़क चुकी थी। दरअसल अतीत के उस दौर में धर्मनगरी की पवित्र मंदाकिनी नदी के किनारे अंग्रेज अफसर गायों का वध कराते थे। गौमांस को बिहार और बंगाल में भेजकर वहां से एवज में रसद और हथियार मंगाये जाते थे। आस्था की प्रतीक मंदाकिनी किनारे एक दूसरी आस्था यानी गोवंश की हत्या से स्थानीय जनता विचलित थी, लेकिन फिरंगियों के खौफ के कारण जुबान बंद थी।कुछ लोगों ने हिम्मत दिखाते हुए मराठा शासकों और मंदाकिनी पार के ‘नया गांव’ के चौबे राजाओं से फरियाद लगायी, लेकिन दोनों शासकों ने अंग्रेजों की मुखालफत करने से इंकार कर दिया। गुहार बेकार गयी, नतीजे में सीने के अंदर प्रतिशोध की ज्वाला धधकती रही। इसी दौरान गांव-गांव घूमने वाले हरबोलों ने गौकशी के खिलाफ लोगों को जागृत करते हुए एकजुट करना शुरू किया। फिर वर्ष 1842 के जून महीने की छठी तारीख को वह हुआ, जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। हजारों की संख्या में निहत्थे मजदूरों, नौजवानों और बुर्कानशीं महिलाओं ने मऊ तहसील को घेरकर फिरंगियों के सामने बगावत के नारे बुलंद किये। खास बात यह थी कि गौकशी के खिलाफ इस आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम बिरादरी की बराबर की भागीदारी थी। तहसील में गोरों के खिलाफ आवाज बुलंद हुई तो बुंदेलों की भुजाएं फड़कने लगीं।देखते-देखते अंग्रेज अफसर बंधक थे, इसके बाद पेड़ के नीचे ‘जनता की अदालत’ लगी और बाकायदा मुकदमा चलाकर पांच अंग्रेज अफसरों को फांसी पर लटका दिया गया। जनक्रांति की यह ज्वाला मऊ में दफन होने के बजाय राजापुर बाजार पहुंची और अंग्रेज अफसर खदेड़ दिये गये। वक्त की नजाकत देखते हुए मर्का और समगरा के जमींदार भी आंदोलन में कूद पड़े। दो दिन बाद 8 जून को बबेरू बाजार सुलगा तो वहां के थानेदार और तहसीलदार को जान बचाकर भागना पड़ा। जौहरपुर, पैलानी, बीसलपुर, सेमरी से अंग्रेजों को खदेड़ने के साथ ही तिंदवारी तहसील के दफ्तर में क्रांतिकारियों ने सरकारी रिकार्डो को जलाकर तीन हजार रुपये भी लूट लिये। आजादी की ज्वाला भड़कने पर गोरी हुकूमत ने अपने पिट्ठू शासकों को हुक्म जारी करते हुए क्रांतिकारियों को कुचलने के लिए कहा। इस फरमान पर पन्ना नरेश ने एक हजार सिपाही, एक तोप, चार हाथी और पचास बैल भेजे, छतरपुर की रानी व गौरिहार के राजा के साथ ही अजयगढ़ के राजा की फौज भी चित्रकूट के लिए कूच कर चुकी थी। दूसरी ओर बांदा छावनी में दुबके फिरंगी अफसरों ने बांदा नवाब से जान की गुहार लगाते हुए बीवी-बच्चों के साथ पहुंच गये। इधर विद्रोह को दबाने के लिए बांदा-चित्रकूट पहुंची भारतीय राजाओं की फौज के तमाम सिपाही भी आंदोलनकारियों के साथ कदमताल करने लगे। नतीजे में उत्साही क्रांतिकारियों ने 15 जून को बांदा छावनी के प्रभारी मि. काकरेल को पकड़ने के बाद गर्दन को धड़ से अलग कर दिया। इसके बाद आवाम के अंदर से अंग्रेजों का खौफ खत्म करने के लिए कटे सिर को लेकर बांदा की गलियों में घूमे।काकरेल की हत्या के दो दिन बाद राजापुर, मऊ, बांदा, दरसेंड़ा, तरौहां, बदौसा, बबेरू, पैलानी, सिमौनी, सिहुंडा के बुंदेलों ने युद्ध परिषद का गठन करते हुए बुंदेलखंड को आजाद घोषित कर दिया। बांदा छावनी के अफसर और सिपहसलार-फरमाबरदार बांदा नवाब की पनाह में थे, लिहाजा अंग्रेजों ने मान लिया कि पैर उखड़ चुके हैं। गजेटियर के मुताबिक अंग्रेजों ने एक बारगी जोर लगाया था, लेकिन बिठूर के पेशवा की अगुवाई में मो। सरदार खां, नाजिम, मीर इंशा अल्ला खान की नाकेबंदी के चलते अंग्रेजों की रणनीति धराशायी हो गयी। इस युद्ध में कर्वी के मराठा सरदार के भाई ने मंदाकिनी और यमुना नदी पर अंग्रेजों की सहायता के लिए आने वाली सेना को रोके रखा। इस आंदोलन को धार देने वालों में अगर शीला देवी की घाघरा पलटन का जिक्र नहीं होगा तो बात अधूरी रहेगी। अनपढ़ शीलादेवी ने इस जंग में अहम हिस्सेदारी के लिए महिलाओं को एकजुट किया और फिर पनघटों पर जाकर अन्य महिलाओं को अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा करना शुरू किया। खास बात यह थी कि घाघरा पलटन में शामिल ज्यादातर महिलाएं बुर्कानशी और अनपढ़ थी, लेकिन क्रांति की इबारत में उनकी हिस्सेदारी मर्दो से कम नहीं रही।“बुन्देलखंड एकीकृत पार्टी” के संयोजक संजय पाण्डेय कहते है कि जब इस क्रांति के बारे में स्वयं अंग्रेज अफसर लिख कर गए हैं तो भारतीय इतिहासकारों ने इन तथ्यों को इतिहास के पन्नों में स्थान क्यों नहीं दिया?सच पूछा जाये तो यह एक वास्तविक जनांदोलन था क्योकि इसमें कोई नेता नहीं था बल्कि आन्दोलनकारी आम जनता ही थी इसलिए इतिहास में स्थान न पाना बुंदेलों के संघर्ष को नजर अंदाज करने के बराबर है.कहा कि बुन्देलखंड एकीकृत पार्टी प्रचार प्रसार के माध्यम से बुंदेलों की यह वीरता पूर्ण कहानी सारी दुनिया तक पहुचायेगी

Sunday, May 3, 2009

चित्रकूट धाम भारत के सबसे प्राचीन तीर्थस्थलों में एक

मंदाकिनी नदी के किनारे पर बसा चित्रकूट धाम भारत के सबसे प्राचीन तीर्थस्थलों में एक है। उत्तर-प्रदेश में 38.2 वर्ग किमी. के क्षेत्र में फैला शांत और सुन्दर चित्रकूट प्रकृति और ईश्वर की अनुपम देन है। चारों ओर से विन्ध्य पर्वत श्रृंखलाओं और वनों से घिरे चित्रकूट को अनेक आश्चर्यो की पहाड़ी कहा जाता है। मंदाकिनी नदी के किनार बने अनेक घाट और मंदिर में पूरे साल श्रद्धालुओं का आना-जाना लगा रहता है।
माना जाता है कि भगवान राम ने सीता और लक्ष्मण के साथ अपने वनवास के चौदह वर्षो में ग्यारह वर्ष चित्रकूट में ही बिताए थे। इसी स्थान पर ऋषि अत्री और सती अनसुइया ने ध्यान लगाया था। ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने चित्रकूट में ही सती अनसुइया के घर जन्म लिया था।

कामदगिरी
इस पवित्र पर्वत का काफी धार्मिक महत्व है। श्रद्धालु कामदगिरी पर्वत की 5 किमी। की परिक्रमा कर अपनी मनोकामनाएं पूर्ण होने की कामना करते हैं। जंगलों से घिरे इस पर्वत के तल पर अनेक मंदिर बने हुए हैं। चित्रकूट के लोकप्रिय कामतानाथ और भरत मिलाप मंदिर भी यहीं स्थित है।

रामघाट
मंदाकिनी नदी के तट पर बने रामघाट में अनेक धार्मिक क्रियाकलाप चलते रहते हैं। घाट में गेरूआ वस्त्र धारण किए साधु-सन्तों को भजन और कीर्तन करते देख बहुत अच्छा महसूस होता है। शाम को होने वाली यहां की आरती मन को काफी सुकून पहुंचाती है।
जानकी कुण्ड

सीता रसोई
रामघाट से 2 किमी। की दूरी पर मंदाकिनी नदी के किनार जानकी कुण्ड स्थित है। जनक पुत्री होने के कारण सीता को जानकी कहा जाता था। माना जाता है कि जानकी यहां स्नान करती थीं। जानकी कुण्ड के समीप ही राम जानकी रघुवीर मंदिर और संकट मोचन मंदिर है।

स्फटिक शिला
जानकी कुण्ड से कुछ दूरी पर मंदाकिनी नदी के किनार ही यह शिला स्थित है। माना जाता है कि इस शिला पर सीता के पैरों के निशान मुद्रित हैं। कहा जाता है कि जब वह इस शिला पर खड़ी थीं तो जयंत ने काक रूप धारण कर उन्हें चोंच मारी थी। इस शिला पर राम और सीता बैठकर चित्रकूट की सुन्दरता निहारते थे।

अनसुइया अत्री आश्रम
स्फटिक शिला से लगभग 4 किमी। की दूरी पर घने वनों से घिरा यह एकान्त आश्रम स्थित है। इस आश्रम में अत्री मुनी, अनुसुइया, दत्तात्रेयय और दुर्वाशा मुनी की प्रतिमा स्थापित हैं।

गुप्त गोदावरी
नगर से 18 किमी। की दूरी पर गुप्त गोदावरी स्थित हैं। यहां दो गुफाएं हैं। एक गुफा चौड़ी और ऊंची है। प्रवेश द्वार संकरा होने के कारण इसमें आसानी से नहीं घुसा जा सकता। गुफा के अंत में एक छोटा तालाब है जिसे गोदावरी नदी कहा जाता है। दूसरी गुफा लंबी और संकरी है जिससे हमेशा पानी बहता रहता है। कहा जाता है कि इस गुफा के अंत में राम और लक्ष्मण ने दरबार लगाया था।

हनुमान धारा
पहाड़ी के शिखर पर स्थित हनुमान धारा में हनुमान की एक विशाल मूर्ति है। मूर्ति के सामने तालाब में झरने से पानी गिरता है। कहा जाता है कि यह धारा श्रीराम ने लंका दहन से आए हनुमान के आराम के लिए बनवाई थी। पहाड़ी के शिखर पर ही सीता रसोई है। यहां से चित्रकूट का सुन्दर नजारा देखा जा सकता है।

भरतकूप
कहा जाता है कि भगवान राम के राज्याभिषेक के लिए भरत ने भारत की सभी नदियों से जल एकत्रित कर यहां रखा था। अत्री मुनि के परामर्श पर भरत ने जल एक कूप में रख दिया था। इसी कूप को भरत कूप के नाम से जाना जाता है। भगवान राम को समर्पित यहां एक मंदिर भी है।

आवागमन
1) वायु मार्ग
चित्रकूट का नजदीकी एयरपोर्ट खजुराहो है। खजुराहो चित्रकूट से 185 किमी. दूर है।
2)रेल मार्ग
चित्रकूट से 8 किमी. की दूरी कर्वी निकटतम रेलवे स्टेशन है। इलाहाबाद, जबलपुर, दिल्ली, झांसी, हावड़ा, आगरा, मथुरा आदि शहरों से यहां के लिए रेलगाड़ियां चलती हैं।
३)सड़क मार्ग
चित्रकूट के लिए इलाहाबाद, बांदा, झांसी, महोबा, कानपुर, छतरपुर, सतना, फैजाबाद, लखनऊ, मैहर आदि शहरों से नियमित बस सेवाएं हैं।

जा पर विपदा परत है, सो आवत यहिदेश।

विंध्यपर्वत के उत्तर में है चित्रकूट धाम। यह न केवल एक धार्मिक स्थान है, बल्कि अपनी प्राकृतिक खूबसूरती के कारण भी काफी चर्चित है।
आध्यात्मिक शांति :चित्रकूट पर्वत मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश, दोनों राज्यों की सीमाओं को घेरता है। वनवास के दौरान भगवान राम ने अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ सबसे अधिक समय तक यहीं निवास किया था। यात्रियों को चित्रकूट गिरि, स्फटिक शिला, भरत कूप, चित्रकूट-वन, गुप्त गोदावरी,मंदाकिनी [पयस्विनी] की यात्रा करने से आध्यात्मिक शांति मिलती है।
चित्रकूट गिरि को कामद गिरि भी कहते हैं, क्योंकि इस पर्वत को राम की कृपा प्राप्त हुई थी। राम-भक्तों का विश्वास है कि कामद गिरि के दर्शन मात्र से दुख समाप्त हो जाते हैं। इसका एक और नाम कामतानाथभी है। अनुसूइयाकी तपोभूमि :चित्रकूट में पयस्विनी नदी है, जिसे मंदाकिनी भी कहते हैं। इसी के किनारे स्फटिक शिला पर बैठ कर राम ने मानव रूप में कई लीलाएं कीं। इसी स्थान पर राम ने फूलों से बने आभूषण से सीता को सजाया था। पयस्विनी के बायीं ओर प्रमोद वन है, जिससे आगे जानकी कुंड है। यहां स्थित अनुसूइयाआश्रम महर्षि अत्रि और उनकी पत्नी अनुसूइयाकी तपोभूमि कहलाती है। कहते हैं कि अत्रि की प्यास बुझाने के लिए अपने तप से अनुसूइयाने पयस्विनी को प्रगट कर लिया। गुप्त गोदावरीकी विशाल गुफामें सीताकुंड बना हुआ है। कामदगिरिके पीछे लक्ष्मण पहाडी स्थित है, जहां एक लक्ष्मण मंदिर है। इसके अलावा, चित्रकूट में बांके सिद्ध, पम्पासरोवर, सरस्वती नदी (झरना), यमतीर्थ,सिद्धाश्रम,हनुमान धारा आदि भी है। राम-भक्त कहते हैं कि राम जिस स्थान पर रहते हैं, वह स्थान ही उनके लिए अयोध्या के समान हो जाता है।
पयस्विनी चित्रकूट की अमृतधारा के समान है। मंदाकिनी नाम से जानी जाने वाली पयस्विनी को कामधेनु और कल्पतरु के समान माना जाता है। शिवपुराणके रुद्रसंहितामें भी पयस्विनी का उल्लेख है। तुलसी-रहीम की मित्रता :वाल्मीकि मुनि ने चित्रकूट की खूब प्रशंसा की है। तुलसीदास ने माना है कि यदि कोई व्यक्ति छह मास तक पयस्विनी के किनारे रहता है और केवल फल खाकर राम नाम जपता रहता है, तो उसे सभी तरह की सिद्धियां मिल जाती हैं।
रामायण और गीतावलीमें भी चित्रकूट की महिमा बताई गई है। दरअसल, यही वह स्थान है, जहां भरत राम से मिलने आते हैं और पूरी दुनिया के सामने अपना आदर्श प्रस्तुत करते हैं। यही वजह है कि इस स्थान पर तुलसी ने भरत के चरित्र को राम से अधिक श्रेष्ठ बताया है। देश में सबसे पहला राष्ट्रीय रामायण मेला चित्रकूट में ही शुरू किया गया। तुलसी-रहीम की मित्रता की कहानी आज भी यहां बडे प्रेम से न केवल कही, बल्कि सुनी भी जाती है।
रहीम ने कहा-जा पर विपदा परत है, सो आवत यहिदेश।