संदीप रिछारिया, चित्रकूट : धर्म दीर्घकालीन राजनीति है। राजनीति अल्प कालीन धर्म। धर्म का काम है अच्छा करें और उसकी स्तुति करें। राजनीति का काम है बुराई से लड़े और उसकी निंदा करे। किंतु जब धर्म अच्छाई न कर केवल स्तुति भर करता है तो वह निष्प्राण हो जाता है और राजनीति जब बुराई से लड़ती नही तो वह कलंकित हो जाती है। पर यह सही है कि धर्म और राजनीति का अविवेकी मिलन दोनो को भ्रष्ट कर देता है। किसी एक धर्म को किसी एक राजनीति से नही मिलना चाहिये। इससे संप्रदायिक कट्टरता पनपती है। यह बातें चित्रकूट में रामायण मेला की कल्पना करने वाले समाजवादी आंदोलन के नायक डा. राम मनोहर लोहिया ने अपने घोषणा पत्र में लिखी थी। घोषणा पत्र में भले ही डा. लोहिया ने इसे राजनीति से सर्वथा अलग बताते हुये साफ तौर पर लिखा था कि रामायण मेले की पृष्ठभूमि में कोई राजनीतिक चाल नहीं है।
उनके शब्द थे कि 'मैं एक बात और स्पष्ट कर दूं कि चित्रकू ट के इस रामायण मेला से दल विशेष का संबंध नही है और न ही मेरी पार्टी सोसलिस्ट पार्टी से। हां सोसलिस्ट कार्यकर्ता जनहित का काम समझकर वैयक्तिक रूप में इसमें विशेष कार्य करें, उसी प्रकार वैयक्तिक रूप में कांग्रेस, कम्युनिष्ट व जनसंघ आदि पार्टियों से सम्बद्ध व्यक्ति भी रामायण मेला को कार्यान्वित करने में रूचि लें और सहयोग करें।'
कम्युनिष्टों से आज तक मेले में सहयोग लेने की कभी जरूरत नहीं समझी गई जबकि यहां के
सांसद और विधायक के पद पर कई बार भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी के लोग विद्यमान रहे। जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी के विपरीत जिसकी सरकार उसकी खुशामद के रूप मे यहां मामला चलता रहा। कांग्रेस के बाद भाजपा, सपा और बसपा के नेताओं को सरकारों के हिसाब से वरीयता दी गई। पिछले तीन सालों में रामायण मेला बसपा मय ही रहा। कुछ इसी तरह का हाल इस साल भी रहा। उद्घाटन सत्र पर पूर्व स्वागताध्यक्ष पूर्व सांसद भीष्म देव दुबे के पुत्र प्रदुम्न दुबे के अलावा मंच पर बसपा के अलावा किसी दूसरी पार्टी का कोई नेता नजर नहीं आया।
राष्ट्रीय रामायण मेले के 38 साल के सफरनामे पर भी नजर डाली जाये जो इस बात की पुष्टि होती है कि एक बार प्रधानमंत्री के रूप में मोरार जी देसाई तो विदेश मंत्री के रूप में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई के अलावा राज्यपालों व राज्यमंत्रियों, कुलपतियों ने समय-समय पर उद्घाटन और समापन किया। जबकि सत्ता से अलग रही दूसरी पार्टियों के राजनेताओं और जिला स्तर के नेताओं को भी इस विशेष सम्मेलन में वरीयता नही दी गई। इस बार के आयोजन में उद्घाटन सत्र से लेकर अभी तक के कार्यक्रमों में बसपा नेताओं के अलावा सपा व भाजपा के नेताओं की मौजूदगी उस महामहोत्सव के दौरान बिल्कुल नहीं दिखी जिसे चित्रकूट का विकास का पर्याय माना जाता है।
गौरतलब है कि जब डा. लोहिया ने राष्ट्रीय रामायण मेला का पूरा कार्यक्रम तैयार कर घोषणा पत्र इसके आयोजकों को समर्पित किया था उनके जेहन में इस बात को लेकर बात साफ थी कि आने वाला समय चित्रकूट का होगा। रामायण मेला अगर उत्तरोत्तर प्रगति करता गया तो इससे चित्रकूट का विकास होगा। भौतिक संसाधन बढे़गे और यहां की गरीबी भी दूर होगी। पर क्या वास्तविकता में ऐसा हो पाया है?
सपा के पूर्व जिलाध्यक्ष राजबहादुर यादव, कांग्रेस के पूर्व जिलाध्यक्ष पुष्पेन्द्र सिंह, भाजपा के पूर्व जिलाध्यक्ष लवकुश चतुर्वेदी व सपा नेता कमल सिंह मौर्या इस मुद्दे पर एक राय होकर कहते हैं कि रामायण मेला से वास्तव में चित्रकूट को एक नई पहचान मिली है पर यह तो अब पूरी तरह से वंशवाद का अखाड़ा बन गया है। यहां साल भर में शादियों, राम व भागवत कथाओं व अन्य आयोजनों के जरिये लाखों की आमदनी होने के बावजूद इसके संचालकों द्वारा मेले के आयोजन के लिये धनाभाव या सरकार की ओर से अनुदान कम मिलने की बात कहना हास्यास्पद लगता है। आयोजक धनाभाव बताकर अच्छे कार्यक्रम निरस्त कर लोगों की भावनाओं पर तुषाराघात कर रहे हैं।
उनके शब्द थे कि 'मैं एक बात और स्पष्ट कर दूं कि चित्रकू ट के इस रामायण मेला से दल विशेष का संबंध नही है और न ही मेरी पार्टी सोसलिस्ट पार्टी से। हां सोसलिस्ट कार्यकर्ता जनहित का काम समझकर वैयक्तिक रूप में इसमें विशेष कार्य करें, उसी प्रकार वैयक्तिक रूप में कांग्रेस, कम्युनिष्ट व जनसंघ आदि पार्टियों से सम्बद्ध व्यक्ति भी रामायण मेला को कार्यान्वित करने में रूचि लें और सहयोग करें।'
कम्युनिष्टों से आज तक मेले में सहयोग लेने की कभी जरूरत नहीं समझी गई जबकि यहां के
सांसद और विधायक के पद पर कई बार भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी के लोग विद्यमान रहे। जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी के विपरीत जिसकी सरकार उसकी खुशामद के रूप मे यहां मामला चलता रहा। कांग्रेस के बाद भाजपा, सपा और बसपा के नेताओं को सरकारों के हिसाब से वरीयता दी गई। पिछले तीन सालों में रामायण मेला बसपा मय ही रहा। कुछ इसी तरह का हाल इस साल भी रहा। उद्घाटन सत्र पर पूर्व स्वागताध्यक्ष पूर्व सांसद भीष्म देव दुबे के पुत्र प्रदुम्न दुबे के अलावा मंच पर बसपा के अलावा किसी दूसरी पार्टी का कोई नेता नजर नहीं आया।
राष्ट्रीय रामायण मेले के 38 साल के सफरनामे पर भी नजर डाली जाये जो इस बात की पुष्टि होती है कि एक बार प्रधानमंत्री के रूप में मोरार जी देसाई तो विदेश मंत्री के रूप में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई के अलावा राज्यपालों व राज्यमंत्रियों, कुलपतियों ने समय-समय पर उद्घाटन और समापन किया। जबकि सत्ता से अलग रही दूसरी पार्टियों के राजनेताओं और जिला स्तर के नेताओं को भी इस विशेष सम्मेलन में वरीयता नही दी गई। इस बार के आयोजन में उद्घाटन सत्र से लेकर अभी तक के कार्यक्रमों में बसपा नेताओं के अलावा सपा व भाजपा के नेताओं की मौजूदगी उस महामहोत्सव के दौरान बिल्कुल नहीं दिखी जिसे चित्रकूट का विकास का पर्याय माना जाता है।
गौरतलब है कि जब डा. लोहिया ने राष्ट्रीय रामायण मेला का पूरा कार्यक्रम तैयार कर घोषणा पत्र इसके आयोजकों को समर्पित किया था उनके जेहन में इस बात को लेकर बात साफ थी कि आने वाला समय चित्रकूट का होगा। रामायण मेला अगर उत्तरोत्तर प्रगति करता गया तो इससे चित्रकूट का विकास होगा। भौतिक संसाधन बढे़गे और यहां की गरीबी भी दूर होगी। पर क्या वास्तविकता में ऐसा हो पाया है?
सपा के पूर्व जिलाध्यक्ष राजबहादुर यादव, कांग्रेस के पूर्व जिलाध्यक्ष पुष्पेन्द्र सिंह, भाजपा के पूर्व जिलाध्यक्ष लवकुश चतुर्वेदी व सपा नेता कमल सिंह मौर्या इस मुद्दे पर एक राय होकर कहते हैं कि रामायण मेला से वास्तव में चित्रकूट को एक नई पहचान मिली है पर यह तो अब पूरी तरह से वंशवाद का अखाड़ा बन गया है। यहां साल भर में शादियों, राम व भागवत कथाओं व अन्य आयोजनों के जरिये लाखों की आमदनी होने के बावजूद इसके संचालकों द्वारा मेले के आयोजन के लिये धनाभाव या सरकार की ओर से अनुदान कम मिलने की बात कहना हास्यास्पद लगता है। आयोजक धनाभाव बताकर अच्छे कार्यक्रम निरस्त कर लोगों की भावनाओं पर तुषाराघात कर रहे हैं।