Sunday, March 10, 2024

डीएम जगन्नाथ सिंह ने देखा था चित्रकूट में जहाज उतारने का सपना




साकार हो रहा है पूर्व डीएम का स्वप्न 

- भारत रत्न नाना जी देशमुख ने योजना को खुद पूरा करने के लिए बढाये थे कदम

-24 साल लगे देवांगना पहाड़ के उपर हवाई जहाज उतरने में
- बसपा ने कैंसिल किया था तो अखिलेश यादव ने लगाये थे पंख
- पूर्व डीएम जगन्नाथ सिंह के साथ भरत पाठक, बसंत पंडित ने की थी मशक्कत  

संदीप रिछारिया

चित्रकूट। साल 2010 की सर्दियों का समय था, भारत रत्न नानाजी देशमुख के पास चित्रकूट डीएम जगन्नाथ सिंह पहुचते है। नानाजी बहुत मधुर स्वर में कहते हैं कलेक्टर साहब,,,,,,क्या हाल है, क्या समस्या है, मैं आपके लिए क्या कर सकता हूं। डीएम कहते हैं कि मेरा स्वप्न चित्रकूट की ख्याति को विश्व व्यापी स्वरूप में देखने का है। आप इस आईडिये को सुनिये और निर्णय लीजिये। चित्रकूट में शिक्षा,स्वास्थ्य सेवाओं व स्वावलंबन का काम करने के लिए आप आयेें हैं, यह आपकी पूर्ण कर्म भूमि है। पीड़ित मानवता की सेवा के लिए धन की बड़ी जरूरत है, इसलिए देश के बड़े उद्योगपतियों को उनके मिलाना बहुत जरूरी होता है। जब वह वनवासियों को देखेंगे तो निश्चित तौर पर मदद करेंगे। अब चित्रकूट में रतन टाटा, महेंद्र महेंन्द्रा, नुरूली वाडिया, वेणु श्री निवासन, विवेक गोयनका, डालमियां परिवार, बजाज परिवार सहित अन्य लोग आने लगे हैं। इनको प्रयागराज या खजुराहो से हेलीकाप्टर के जरिए चित्रकूट लाया जा रहा है, इसमें धन, श्रम और समय लगाता है। अगर चित्रकूट में हवाई पट्टी का निर्माण हो जाए तो यहां पर सीधे विमान उतरेगा और धन, श्रम और समय बचेगा। यह भारत रत्न नाना जी देशमुख के साथ पूर्व जिलाधिकारी जगन्नाथ सिंह द्वारा चित्रकूट में हवाई अड्डा बनाने के लिए किया गया पहला संवाद था।

जिसको पंख लगाने का काम डीएम जगन्नाथ सिंह ने चार पांच जमीन दिखाने के बाद देवांगना के उपर की जमीन को मूर्त रूप देने के लिए प्रस्तावित किया। इस जमीन में वन विभाग की जमीन का कुछ हिस्सा आने के कारण उसे भौरी गांव के पास जंगल की ड्योढी राजस्व की जमीन देकर मामले को निपटाया गया और शासन पक्ष से बात कर सरकार ने पहली बार प्रयास पूरे रूप में शुरू किया। इसमें सबसे बड़ी बात यह थी कि नाना जी इस काम में डीआरआई को किसी भी तरह का फायदा नही चाहते थे। नानाजी की मित्र मंडली के कई उद्योगपतियों ने मिट्टी, गिट्टी और सीमेंट लेबर जैसी अन्य व्यवस्थाओं के लिए धन दिया तो इस काम को देखने की पूरी जिम्मेदारी डीआरआई के पूर्व प्रधान महासचिव डा0भरत पाठक व बसंत पंडित को मिली। राइट्स कपंनी को सरकार ने काम पर लगाया तो धन जुटाने की व्यवस्था डीआरआई के पास रही। काम शुरू हुआ और कुछ दिनों बाद डकैत छोटा पटेल द्वारा अडंगा डालने के बाद उसे बंद करना पड़ा। सीआरपीएफ लगाई गई, फिर काम शुरू हुआ, लेकिन कुछ दिनों बाद फिर काम बंद हुआ, यह सिलसिला कई बार चला। एक बार प्रोजेक्ट मैनेजर बिटृटू का अपहरण होने के बाद ज बवह छूटा तो समान छोड़कर भाग गया। इसके बाद हवाई पटृटी सपना बनकर रह गई। वक्त गुजरता रहा, मुलायम सिंह यादव की सरकार बनी। सितम्बर 2005 में चित्रकूट में उन्होंने पांच दिवसीय राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक की। नानाजी से मिलने के बाद उन्होंने मंच से चित्रकूट में हवाई अड्डा को सरकार द्वारा बनाने की घोषणा की। कुछ काम आगे बढा। लेकिन मामला पूरी तरह से बन नही पाया। इसके बाद बहन मायावती की सरकार आई। बांदा चित्रकूट से तीन कैबिनेट मंत्री बने। नसीमुद्दीन सिद्वीकी व बाबू सिंह कुशवाहा ने चित्रकूट में हवाई अड्डा कैंसिल कराने का पूरा प्रयास कर अतर्रा के पास हवाई अड्डा ले जाने का प्रयास किया। लेकिन मामला जम नही पाया। इसके बाद प्रदेश में सपा की सरकार फिर से आई और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव बने, उन्होंन चित्रकूट के विकास के लिए काफी काम किया। उन्होंने सीधे सैधांतिक तौर पर चित्रकूट में बनने वाले यात्री हवाई अड्डे के निर्माण की स्वीकृति के लिए दिल्ली से पूरा प्रस्ताव तैयार कर पास कराया। बस स्टाप की स्थापना, चारो ओर सीमेंटेड फोन लेन रोड़, परिक्रमा पथ निर्माण व टीन शेड, रामघाट का सौंदर्यीकरण के साथ अन्य बड़े काम रहे। लेकिन देखा जाए तो उन्होंने घोषणाएं और प्रस्ताव तो बहुत किये, पर धन आंवटन की स्थिति बहुत कम रही। लिहाजा काम कुछ हुआ ही नहीं। योगी सरकार के आने के बाद चित्रकूट में विकास के पंख लगे और धीरे धीरे लगभग सभी बड़े काम पूरे हो गये। आज जब चित्रकूट में हवाई अड्े पर पहला विमान उतरेगा तो नाना जीे देशमुख की आत्मा को काफी प्रसन्नता का अनुभव होगा।
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नाना जी अपना सबकुछ दोड़कर चित्रकूट आये, लेकिन उनकी तपस्या का माध्यम पीड़ित वंचितों की सेवा था, वह श्री राम को पहला समाजसेवी कहा करते थे। नानाजी के साथ हम इस काम में सहभागी बने यह हमारा सौभाग्य है। हवाई पटृटी के लिए पहली बार जब जमीन देखने गये थे और आज 24 साल बाद इस स्थिति में इसे देख रहे हैं कि जमीन पर यात्री जहाज उतर रहा है तो असीम खुशी का अनुभव हो रहा है।


डा0 भरत पाठक, राष्ट्रीय संयोजक, गंगा विचार मंच
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जब चित्रकूट गया तो वह नया जिला था। चित्रकूट के दर्शन दो स्वरूपों में हुये। पहला स्वरूप पूर्ण रूप से धार्मिक था, तो दूसरा स्वरूप पूर्ण रूप से वनवासियों की करूण स्थिति वाला था। गावों व जंगलों में प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर प्रपात, पहाड़ जगल और अन्य स्थान थे, पूरा प्लान बनाकर काम किया गया। इस दौरान नाना जी का सहयोग लगभग हर काम में मिला। वह युगदृष्टा थे। हर अच्छे काम में पूरा समर्थन देते थे। हवाई पटटी का आइडिया सुनते ही उत्साहित होकर खुद जिम्मेदारी ले ली थी। आज वास्तव में चित्रकूट का नाम जब विश्व के इवाई मानचित्र में देखकर मन को सुकून मिल रहा है।



जगन्नाथ सिंह
रिटायर्ड आईएएस

             
 

Saturday, March 9, 2024

वेद पाठियों ने की राम कथा रसिक बजरंगी की दिव्य स्तुति




राष्ट्रीय रामायण मेला दूसरा दिन 


  -विविध आयोजनों के जरिए बह रही है रामभक्ति की बयार
- सांस्कृतिक कार्यक्रम देखनेे को उमड़ रही है भीड़  

संदीप रिछारिया 


चित्रकूट। महादेव व मां गौरा के विवाह के साथ राष्ट्रीय रामायण मेला का प्रारंभ ऐसा आभास दे रहा है कि राम भक्ति की बयार सम्पूर्ण चित्रकूट धाम परिक्षेत्र में बह रही है। आयोजन के दूसरे दिन की दोपहर एक नई प्रस्तुति मंच से दिखाई दी। स्वामी जयेन्द्र सरस्वती वेद पाठशाला के सैकड़ा भर छा़त्रों ने मंच से एक साथ जब सुंदर कांड का पाठ किया तो भक्तों के अंदर का उत्साह देखते ही बन रहा था। जय बजरंग सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन उपाध्याय व राष्ट्रीय प्रभारी अर्चना उपाध्याय के द्वारा प्र्रायोजित इस कार्यक्रम का संचालन डा0 रामलाल द्विवेेदी प्र्राणेश ने किया। कार्यक्रम के उपरांत मिष्ठान वितरण के साथ ही सभी को मंच से गमलोें में लगे पौधे देकर पर्यावरण की सुरक्षा व संरक्षा पाठ भी पढ़ाया गया। श्री उपाध्याय व उनकी पत्नी राष्ट्रीय प्रभारी अर्चना उपाध्याय इन दिनो रामचरित मानस को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित कराने की मुहिम में जुटे हुए हैं।   


विद्वत गोष्ठी का संचालन करते हुए डा. चन्द्रिका प्रसाद दीक्षित ललित ने श्रीराम की लंका विजय पर विशेष प्र्रकाश डालते हुए कहा कि चित्रकूट की धरती पर ही माता सीता ने लक्ष्मण जी को व्यूह रचना और उसको तोड़ने की शिक्षा दी थी। यह तथ्य अरण्य प्रिया काव्य में है। मप्र भिडं के प्रवक्ता देवेन्द्र चैहान रामायणी ने भरत जी की महिमा का वर्णन करते हुए प्रश्न किया कि सीप से सागर को खाली किया जा सकता है। उन्होंने मानस के अनुसार प्रमाण देते हुए कहा कि भरत के अंदर आठ महासागर है। जिनमें भरत शील गुण विनय बड़ाई, भाईप भगति भरोस भलाई। कहत शारदहु कर मत हीचे, सागर सीप जाएं उलीचें। प्रत्येक महासागर का वर्णन अलग-अलग प्रकार से किया गया है। भरत जी का शील उनकी विनम्रता, गुण, बड़ाई, भ्रातृत्व प्रेम और भगति, भरोसा, भलाई हैं। 



पश्चिम बंगाल दार्जलिंग सिलीगुडी के महाकवि मोहन दुकुन ने प्रभु श्रीराम और भगवान शिव के बारे में बताया कि जब पृथ्वी, आकाश, जीव नहीं था तब नांद व बिन्दु रूप में शिव जी रहे। पहली बार शिव हंसे तो अपना रूप ले लिया। इसके बाद ब्रह्मांड को तैयार किया। दाहिने हाथ से ब्रह्मा जी को तैयार किया। बांए हाथ से हरि की उत्पत्ति की। धीरे-धीरे जीवात्मा की रचना की। इसके बाद ब्राह्मा, विष्णु और शिव ने सिर्फ बेटा को पैदा, लेकिन बेटी नहीं बनाया। जब तीनो देवो को यह महसूस हुआ कि नारी की जरूरत है तो ओंकार शब्द बोलकर शिव जी ने अर्द्धनारेश्वर का रूप लिया। इसके बाद अपने ही शरीर को दो भागों में विभाजित कर नर और नारी की उत्पत्ति की जो शिव और जगदम्बा बने। तब जाकर संसार का स्रजन हुआ। मानव कल्याण के लिए देवी व देवताओं को जिम्मेदारी दी गई। जैसे सरस्वती को ज्ञान, शारदा को विद्या, लक्ष्मी को धन, जीवो के स्रजन के लिए ब्रह्मा, पालन पोषण में विष्णु, रक्षा के लिए शिव को दायित्व दिए गए। इसी प्रकार अन्य देवो-देवीयो को अलग-अलग कार्य सौपे। उन्होंने बताया कि समस्त ब्रह्मांड शिवमय है। श्री दुकुन ने शिवाधीन नाम से महाकाव्य लिखा, जिसमें संपूर्ण वर्णन किया। 
बबेरू बांदा से पधारे पं लक्ष्मी प्रसाद शर्मा मानस मर्मज्ञ ने भगवान श्रीराम के नाम के प्रभाव पर चर्चा करते हुए कहा कि राम नाम कर अमित प्रभावा, राम नाम अभिमत कलदाता, हित परलोक लोक पितु माता। भगवान श्रीराम का नाम इस लोक में माता-पिता की तरह रक्षा करता है और उस लोक में भी हितकारी है। भगवान शिव का वाहन बैल, माता पार्वती का वाहन सिंह, गणेश जी का वाहन चूहा, भगवान शिव के गले में सर्प तथा मयूर कार्तिकेय जी का वाहन है जो जन्मजात एक दूसरे के दुश्मन है, परन्तु राम नाम के प्रभाव से सभी एक जगह बड़े प्रेम के साथ रहते हैं। हमें भी मानव शरीर पाने के पश्चात भगवान के पावन नाम का जाप करके अपने जीवन को कृतार्थ करना चाहिए। राष्ट्रीय रामायण मेला चित्रकूट की पावन धरा से यह संकल्प लेकर जाएं कि 24 घंटे में से कुछ समय निकाल कर भगवान के नाम का स्मरण अवश्य करें। यही हमारे जीवन का अंतिम लक्ष्य है। भक्त प्रहलाद ने केवल राम नाम के प्रभाव, जप से सभी विषम परिस्थितियों में कमल की भांति खिले रहे। उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सका है। अस्तु भगवान के भजन के द्वारा ही जीवन का कल्याण होता है।
मुम्बई से पधारे वीरेन्द्र प्रसाद शास्त्री ने मानस के अंतर्गत जनक जी के प्रसंग में विषयानन्द, ब्रह्मानन्द, परमानन्द के बारे में विवेचन करते हुए बताया कि परमानन्द का जो आनन्द है वह सर्वोपरि है। यह आनन्द निराकार ब्रह्म सगुण रूप में भक्त के सामने प्रकट होता है। उससे जो आनन्द उत्पन्न होता है वही परमानन्द है जो आनन्द सभी से परे है। उन्होंने श्रोताओं को समझाते हुए बताया कि आप सभी को परमानन्द की स्थिति में रहना चाहिए। 
छिंदवाड़ा के सीताराम शरण रामायणी ने कहा कि असु स्वभाव कहु सुनहु न देखेउ, केहि खगेश रघुपति सम लेखउ। उमा राम सुभाउ जेहि जाना, ताहि भजन तज भाव न आना। प्रभु राम का भक्तो से अति प्रेम करने का स्वभाव ही है। खंडवा के रमेश तिवारी ने कहा कि भगवान राम अति दयालु हैं। जयंत द्वारा घनघोर अपराध करने के बाद भी उसके शरण में आने पर उसे एक नैन कर तजा भवानी की ही सजा दी थी। इसी क्रम में ही वृंदावन के कृष्णानन्द शास्त्री, वसधुंरा रामायणी छिंदवाडा ने रामकथा पर अपने प्रवचन किए। कार्यकारी अध्यक्ष प्रशांत करवरिया, महामंत्री करुणा शंकर द्विवेदी, शिवमंगल शास्त्री, विनोद मिश्रा, राजाबाबू पांडेय, डा घनश्याम अवस्थी, मो यूसुफ, ज्ञानचन्द्र गुप्ता, राम प्रकाश श्रीवास्तव, इम्त्यिाज उर्फ लाला, सत्येन्द्र पांडेय, हेमंत मिश्रा, विकास आदि मौजूद रहे।

उल्लास और उमंग से सराबोर रही शाम की प्रस्तुतियां 
सांस्कृतिक कार्यक्रमों में की श्रंखला में स्वरात्मिका इंस्टीट्यूट आफ डांस एण्ड म्यूजिक के कलाकारों ने एक से बढ़कर एक मनोहारी प्रस्तुतियां दी। मंजू देवी, पिंकी सरोज और अर्चना ने गणेश वंदना, शिव स्तुति और देवी गीत पर नृत्य कर दर्शकों का मन मोह लिया। इन कलाकारों ने मिर्जापुर की मशहूर कजरी विधा पर भी मनमोहक नृत्य प्रस्तुत किया। जब से पीएम नरेन्द्र मोदी ने 22 जनवरी को अयोध्या में श्री राम के नए नवेले भव्य मंदिर में भगवान श्रीराम के प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा की है तब से पूरे देश में राम भक्तों का उल्लास आसमान छू रहा है। जब पूरा देश राममय हो तब भला रामायण मेला के मंच से रामोत्सव की धूम नजर न आए यह कैसे हो सकता है। लखनऊ से आए कलाकारों के दल ने मंच से भगवान राम के जन्म की लीलाओं को लेकर नृत्य प्रस्तुत किया तो पूरा पांडाल दर्शकों की तालियों से गूंज उठा। सांस्कृतिक कार्यक्रमों की अगली कड़ी में प्रयागराज से आई पूजा अग्रवाल ने कथक नृत्य के माध्यम से अपनी कला का बेजोड नमूना प्रस्तुत किया। कथक नृत्य की विधा का बखूबी प्रदर्शन करते हुए पूजा अग्रवाल दर्शको को बांधे रखने में सफल रहीं। एक के बाद एक कभी एकल तो कभी सामूहिक कथक नृत्य का लोगों को भावविभोर कर दिया। पूजा अग्रवाल भारतीय प्रयाग संगीत समिति में प्रोफेसर हैं और देश-विदेश में इन्होंने अपनी नृत्य की प्रस्तुतियां दी है।
शनिवार को सुबह मेले के कार्यकारी अध्यक्ष प्रशांत करवरिया व राजाबाबू पांडेय ने आरती कर रामलीला का शुभारंभ कराया। प्रभु श्रीराम का माल्र्यापण किया गया। इसके पूर्व शुक्रवार की रात श्री बृज कृष्णलीला रामलीला संस्था के द्वारा रामायण मेला के मंच पर प्रभु श्रीराम के जन्म की लीला का सजीव मंचन किया गया। पूरे तीन घंटे तक पांडाल भगवान राम के जन्म के उल्लास में डूबा रहा। वृंदावन से आए साधक कलाकारों के सजीव अभिनय ने लोगों का मन मोह लिया। भगवान राम की बाल लीलाओं की प्रस्तुति इतनी सुंदर और मनमोहक थी कि लोग सांस थामे श्रीराम लीलाओं का रसस्वादन करते रहे। रामलीला के बीच-बीच में प्रभु श्रीराम के भजन दर्शकों को रामभक्ति में गोते लगाने पर विवश करते रहे। इस दौरान कार्यकारी अध्यक्ष को गमला भेंटकर सम्मानित किया गया। इस मौके पर महामंत्री करुणा शंकर द्विवेदी, शिवमंगल शास्त्री, जितेन्द्र करवरिया, सुधीर अग्रवाल, अभिमन्यु सिंह आदि मौजूद रहे। 


Friday, March 8, 2024

राष्ट्रीय रामायण मेला के शुभारंभ में गूंजी मंत्रों की ध्वनियां

धर्मो रक्षति रक्षतः,,,,,,,,


- गोवर्धन पीठाधीश्वर जगदगुरू अधोक्षजानन्द देवतीर्थ पुरी महाराज ने किया शुभारंभ
- हनुमान गढी के महंत राजूदास ने कहा, श्री रामचरितममानस को फाडने की बात करने वाले को जीने का अधिकार नहीं
- चित्रकूट के सभी अखाड़ों ने निकाली विशाल शोभायात्रा
- जय बजरंग सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन उपाध्याय व राष्ट्रीय प्रभारी अर्चना उपाध्याय रहे विशिष्ट अतिथि


चित्रकूट। धर्मो रक्षति रक्षतः, जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है। जल्द ही अखंड भारत का सपना पूरा होने वाला है, भारत की संसद ने इसको करके दिखा दिया है। यह सदी सनातन की है। क्योंकि कुशल नेतृत्व के कारण सनातन को वैश्विक मान्यता मिलती दिखाई दे रही है। यह बातें गोर्वधन पीठ के जगद्गुरू अधोक्षानंद देवतीर्थ पुरी जी महराज ने राष्ट्रीय रामायण मेला के 51 वें सस्करण का शुभारंभ करते हुये कहीं।
उन्होंने कहा कि वह पिछले तीन साल से अखंड भारत के वृत को लेकर अखंड भारत के सभी धर्मस्थलों में जाकर धर्म का प्रचार कर रहे हैं। बांग्लादेश, म्यामार, सहित एक दर्जन देशों की यात्रा की जा चुकी है, जबकि जल्द ही पाकिस्तान जाकर माता हिंगलाज की पूजा करना है।
भगवान श्री राम की तपस्थली आज देश के विशिष्ट संतो ंके चरणों को पाकर धन्य हो गई। राष्ट्रीय रामायण मेला के 51 वें संस्करण का शुभारंभ गोवर्धन पीठ के जगदगुरू स्वामी अधोक्षानंद देवतीर्थ पुरी जी महराज व अयोध्या की हनुमान गढी के महंत राजूदास ने वेद की ऋचाओं के बीच दीप प्रज्जवलित कर किया।  
डदृघाटन के पूर्व निर्माेही तिराहे से चित्रकूट धाम के सभी सात अखाड़ों के निशानों के साथ विशिष्ट संतों की उपस्थित में हाथी घोड़ों के साथ विशाल शोभायात्रा निकाली गई। जिसका स्वागत कई स्थानों पर होने के साथ ही रामायण मेला सभागार के बाहर कार्यकारी अध्यक्ष प्रशांत करवरिया, महामंत्री डा0 करूणाशंकर द्विवेदी ने किया। उनका सहयोग मनोज गर्ग, राजा बाबू पांडेय, पप्पू श्रीवास्तव आदि ने किया। रामायण मेला की औपचारिक शुरूआत के पूर्व स्वामी जयेन्द्र सरस्वती वेद पाठशाला व श्री राम संस्कृत महाविद्यालय के छात्रों ने स्वस्ति वाचन मंगलाचरण किया। इसके बाद मेले के कार्यकारी अध्यक्ष व महामंत्री व अन्य पदाधिकारियों ने विशिष्ट अतिथियों का स्वागत माल्यापर्ण, मानस व श्री फल भेंट कर किया।  कार्यक्रम के प्रारंभ में जगद्गुरू रामभद्राचार्य दिव्यंाग विश्वविद्यालय के संगीत विभाग के प्रमुख डा0 विशेष नारायण मिश्र व महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय के राजा पांडेय ने गणेश वंदना प्रस्तुत की। अयोध्या हनुमान गढी से आये महंत राजू दास ने कहा कि जिस व्यक्ति ने मानस का अपमान कर उसे जलाने व फेंकने की बात कही है, उसे जीने का कोई अधिकार नहीं हैं। हिंदू सहिषुण्य है तभी वह जिंदा है, नही तो एक देश में छोटा सा कार्टून बनाने पर 8 पत्रकारों को मौत के घाट उतार दिया गया था। उन्होंने राम जन्म भूमि आंदोलन के तमाम वृतांत प्रस्तुत किये। पूर्व सांसद भैरों प्रसाद मिश्र ने सभी आमंत्रित लोगों का स्वागत करते हुए कहा कि हमारा अगला लक्ष्य रामायण मेले को विश्व रामायण मेला बनाना है। हम इस दिशा में तेजी से काम कर रहे हैं। इस दौरान महामंत्री डा0 करूणाशंकर द्विवेदी ने डा0 लोहिया द्वारा रामायण मेले की परिकल्पना के समय कहे गये उद्गारों को बताया। उन्होंने कहा कि मेले को मूर्त रूप प्राप्त करने में 13 वर्ष का समय लगा, लेकिन वास्तव में यह ऐसा आयोजन है जिसका मूल उद्देश्य विशिष्टिता से भरा है। आनंद, दृष्टि, रससंचार और हिंदुस्तानी को बढ़ावा देने के का सपना डा0 लोहिया ने देखा था। इसकी पूर्ति लगातार मेला का आयोजन कर रहा है। दिगंबर अखाडे के महंत दिव्य जीवन दास जी ने कहा कि वास्तव में रामायण मेला के आयोजन ने चित्रकूट के विकास के लिए मील का पत्थर स्थापित किया है। 50 आयोजन का मतलब यहां पर पांच दिनों तक लगातार देश व विदेश के गणमान्यों का मेला लगा रहना और उनके यहां से जाने के बाद चित्रकूट का प्रचार यहां के विकास का एक बड़ा कारक रहा है।
डा0 चंद्रिका प्रसाद दीक्षित ने कहा कि चित्रकूट राम की वह भूमि हैं, जहां पर राम नाम हमेशा गुंजायमान रहता है। भले ही तुलसी व वाल्मीकि के राम का अवतरण त्रेता में हुआ हो, पर यहां पर तो सतयुग में स्वयं परम पिता ब्रहमा ने रामार्चा कर राम की भक्ति की शुरूअंात की थी। इस दौरान जय बजरंग सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन उपाध्याय, राष्ट्रीय प्रभारी अर्चना उपाध्याय, पूर्व मंत्री चंद्रिका प्रसाद उपाध्याय, निर्वाणी अखाड़े के महंत सत्य प्रकाशदास जी, कामदगिरि पीठम के महंत मदन गोपाल दास, निर्माेही अखाड़े के अधिकारी दीन दयाल दास महराज सहित अन्य लोग मौजूद रहे।

Sunday, February 25, 2024

त्रिदिवसीय अंतरराष्ट्रीय थाई महोत्सव हुआ समापन



बुद्धम शरणम गच्छामि पाठ से गुंजायमान हुआ कुशीनगर


 कुशीनगर। थाई बुद्धिस्ट मोनेस्ट्री द्वारा माघी पूर्णिमा के पावन अवसर आयोजित 15 वें तीन दिवसीय महोत्सव का समापन विश्व कल्याण की कामना के साथ हुआ। मुख्य महापरिनिर्वाण मन्दिर में थाई मोनेस्ट्री में 
मुख्य भन्ते फ्रॉ खुरोननार्थ चेत्यापिराक, भन्ते पोंगरिथ सृस्मिथ, थोंग पे, भदंत ज्ञानेश्वर
सहित भिक्षुओं ने बुद्ध की लेटी प्रतिमा के समक्ष पूजन अर्चन कर चीवर चढ़ाया और विश्व शांति की कामना की। बुद्ध के निर्वाण व अंत्येष्टि स्थल पर सूत्र पाठ के साथ पूजन अर्चन कर भारत - थाई सम्बन्धों की मजबूती की प्रार्थना की गई। इससे पूर्व प्रथम दिन बुद्ध का आह्वान पूजन हुआ। दूसरे दिन थाई मन्दिर में थाई भिक्षु सोम देत द्वितीय ने बुद्ध धातु अवषेश का पूजन किया। 


*स्तूप पूजन के साथ संपन्न हुई थाई बुद्ध धातु शोभायात्रा*

थाई बुद्धिस्ट मोनास्ट्री कुशीनगर के तत्वावधान में तीन दिनों से चल रही पवित्र बुद्ध धातु शोभायात्रा शनिवार को रामाभार स्तूप के विशेष पूजन-वंदन व स्तूप पर शंख ध्वनि के बीच रॉयल पैलेस बैंकॉक से आए पवित्र जल चढ़ाने के साथ समाप्त हो गई। इसकी अध्यक्षता व थाईलैंड से आए थाई मोनास्ट्री के अध्यक्ष फ्रा नरोंगरिथ ने किया। शोभायात्रा का प्रारंभ  महापरिनिर्वाण बुद्ध मंदिर में धातु अवशेष के पूजन के साथ हुआ। उसके बाद थाई संगीत की धुन पर थाई कलाकारों के कई ग्रुप ने अलग-अलग मनोहारी थाई नृत्य रामाभार स्तूप तक करते रहे। शोभायात्रा में शामिल विभिन्न देशों के बौद्ध भिक्षु, उपासक व उपसिकाओं ने फ्रा  सुबोध व थाई मोनास्ट्री प्रभारी फ्रा सोमपोंग के निर्देशन में रामाभार स्तूप की विधिवत पूजा की। माघ पूजा के उपलक्ष आयोजित बुद्ध धातु शोभायात्रा के महत्व के बारे में फ्रा सोमपोंग ने बताया कि भगवान बुद्ध ने माघ पूर्णिमा को ही घोषणा की थी कि वह तीन माह बाद कुशीनगर में महापरिनिर्वाण प्राप्त करेंगे। कहा कि बुद्ध के प्रति श्रद्धालुओं द्वारा श्रद्धा प्रकट करने के लिए ही प्रतिवर्ष यह आयोजन होता है। संचालन सुथी सुक्साखुन ने किया। इस दौरान पी. सोंगक्रान, डॉ जित्तिफान, डॉ भिक्षु नन्दरतन, फ्रा दम, लामा, प्रोंग्रिथ श्रीस्मिथ,अमित कुमार द्विवेदी, राजू खन्ना, अंबिकेश त्रिपाठी, विवेक गोंड, ओमप्रकाश, सूरज यादव, नितीश यादव, पर्यटक  एसएचओ राजेश कुमार, एनसीसी कैडेट्स,स्कूली छात्र, पुलिस फोर्स आदि उपस्थित रहे।


*शोभायात्रा में शामिल हुए प्रमुख सचिव खेल*

थाई बुद्धिस्ट मोनास्ट्री द्वारा निकाली गई शोभायात्रा में प्रमुख सचिव खेल व युवा कल्याण आलोक कुमार भी शामिल हुए। कहा कि पर्यटन विकास के लिए कुशीनगर में ऐसे कार्यक्रम होते रचना चाहिए। थाई मोनास्ट्री का कार्य सराहनीय व अनुकरणीय है। इस दौरान विधायक पीएन पाठक, राकेश कुमार, नीतीश यादव , इओ शैलेन्द्र मिश्र, सुमित त्रिपाठी, किरन सिंह आदि मौजूद रहे।



 *दो सौ गरीब जरुतमन्दों को दी गयी खाद्य सामग्री* 

थाई मोनेस्टी में भन्ते फ्रॉ खुरोननार्थ चेत्यापिराक के निर्देशन में दो सौ जरुरतमन्दों में खाद्य सामग्री आये हुए अतिथियो माता जी बुआ, मिसेज एए, भन्ते सों क्रान, भन्ते पी पविन, डॉ कितिफान, लोम्पो नरोंग, भन्ते नन्द रतन, नरोंगलिट इंचारोएनयिंग , सोरा किट पियमंयरउँगसी, चटचाई उरकरवा, डाइरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस थाईलैंड डॉ मोन रूडी, अम्बेसडर वर्ड पीस यूनाइटेड नेशन डॉ परविंदर सिंह, अच्युतानंद त्रिपाठी, राज बन्धु खन्ना सहित भिक्षुओं ने वितरित किया।

 *महाराजा मृगेंद्र प्रताप शाही को मानद की उपाधि मिली* 

हथुआ के महाराजा मृगेंद्र प्रताप शाही को थाईलैंड के महा चुला लोंग विश्विद्यालय द्वारा प्रदान की गई पीएचडी की उपाधि प्रदान की गई। मोनेस्ट्री के प्रमुख भन्ते ने सफल आयोजन के लिए आभार व्यक्त किया।

Saturday, January 13, 2024

रामनगरी के राजा से मिलने आए राम के दूत



- यूनाइडेड नेशनं के वर्ड पीस एबेंसडर डा0 परविंदर सिंह की अगुवाई में आया थाईदल

- थाईलैंड की सरकार ने सांस्कृतिक केंद्र के लिए राजा से मांगी जमीन

संदीप रिछारिया

अयोध्या। श्रीहरी विष्णु के वाहन गरूण के पुजारी और श्रीराम के नाम के राज करने वाले थाईलैंड ने एक बार फिर अपने पुराने रिश्तों को और मजबूत करने की दिशा में कदम उठाया है। यूनाइडेड नेशंश से वर्ड पीस अंबेस्डर डा0 परविंदर सिंह की अगुवाई में आये थाई भिक्षुओं ने अयोध्या के राज परिवार के सदस्य एवं श्रीराम जन्म भूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के सदस्य विमलेंद्र मोहन प्रताप सिंह ने मुलाकात कर सांस्कृतिक केंद्र खोलने के लिए जमीन की मांग का प्रस्ताव दिया। श्री सिंह ने उनके प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर कहा कि जल्द ही इसके लिए अगली कार्यवाही की जाएगी।
शुक्रवार की दोपहर गया से सारनाथ होते हुए थाई प्रतिनिधियों का दल अयोध्या पहुंचा। यहां पर सर्वप्रथम उन्होंने श्री राम लला के दर्शन किये।
इस दौरान हिस हाईनेस डा0 परविंदर सिंह ने बताया कि भगवान राम एक ऐसे आदर्श पुरूष थे जिनके आर्दशो को थाई लैंड सदियों पहले आत्मसात कर चुका है। थाईलैंड में श्री राम के नाम पर ही राजा राज करते हैं। वर्तमान समय राम 10 का शासन चल रहा है। उन्होंने बताया कि थाईलैंड मे रामायण के प्रसंगों को रामलीला के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है। वहां पर संवाद संप्रेषण के साथ मुखौटों व मुखाकृति के द्वारा ंविशेष प्रस्तुति दी जाती है। हमारा लक्ष्य भारत और थाईलैंड के पारस्परिक संबंधों को और भी ज्यादा मजबूती देना हैै
इसके बाद थाईदल राज सदन पहुंचा। जहां पर उनका स्वागत विमलेंद्र मोहन प्रताप सिंह व स्थानीय साहित्यकार यतीन्द्र मिश्रा ने जोरदार तरीके से किया। यहां पर डा0 सिंह ने थाईलैंड की ओर से उन्हें अयोध्या में एक सांस्कृतिक केद्र खोलने का प्रस्ताव दिया। इस दौरान डा0 सिंह ने कहा कि भगवान राम की जन्मभूमि थाईलैंडवासियों के दिलों में विशेष स्थान रखती है। इसको ध्यान में रखते हुए हम लोग उत्तर प्रदेश में वाट फ्राराम अयोध्या, संस्कृति मंत्रालय एक कला और सांस्कृतिक केंद्र के विकास एवं स्थापना को लेकर कृतसंकल्पित है। वाट फ्रा राम अयोध्या का लक्ष्य अयोध्या शहर के समग्र विकास में योगदान देना है। इस महत्वाकांक्षी योजना के लिए जमीन की तलाश है। इसके बनाने के पीछे का लक्ष्य भौतिक प्रगति के साथ ही सांस्कृतिक और सामाजिक समरसता को और भी ज्यादा प्रभावी, एकात्म मानववाद से उत्प्रेरित करना है। यह संस्कृति मंत्रालय न केवल समुदायों के बीच बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर संस्कृति के आदान प्रदान में सहभागी बनेगा। यह  कला और सांस्कृतिक केंद्र भारतीय नागरिकों व वैश्विक पर्यटकों के बीच सुलभ कला प्रदान करने के अवसर प्रदान करेगा। यह केद्र कलात्मक अभिव्यक्ति, अयोध्या की विविध सांस्कृतिक परंपरा को प्रदर्शित करने और रचनात्मकता को बढाने का केंद्र होगा। यह थाई भारतीय सहयोग के लिए एक बड़ा प्रकाशस्तम्भ के रूप में काम करेगा।
उन्होंने कहा कि 22 जनवरी को भारत के हर गांव में उत्सव मनाया जाने के लिए तैयारियां चल रही हैं, ऐसे ही थाईलैंड में भी हर तरफ उत्साह का माहौल है। हर गांव गांव में सांस्कृतिक व सामाजिक तौर पर लोग इस बड़े आयोजन के साभ्श्रल्न्थ जुडकर खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। उनके साथ थाई बौधभिक्षु फ्रापलाड नारोंग मौजूद रहे।

Saturday, November 18, 2023

चित्रकूट अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन को लेकर उत्साह चरम पर,,बहने बाट रही पीले चावल

 

                  बहने घर घर जाकर बांट रही पीले चावल
        
त्रिदेवों की जन्मस्थली चित्रकूट को अंतरराष्ट्रीय फलक पर 
लाने के लिए खास लोगों के साथ आमजन भी अपनी कमर कर चुके हैं। आयोजन समिति से जुड़े हुए लोग जहां घर-घर जाकर लोगों को आमंत्रण पत्र बाटकर  कार्यक्रम की विशेषताएं बता रहे हैं ।वही, कार्यक्रम में सहभाग कर रही महिलाएं भी उत्साहित होकर घर-घर आमंत्रण पत्रक बांटने कम कर रही है।




        विशेष महानुभाव हो रहे आनंदित
शनिवार की दोपहर शनिवार की दोपहर डी आर आई के संगठन सचिव महाजन जी ने आकर केंद्रीय कार्यालय में कार्यक्रम के संबंध में पूरी जानकारी प्राप्त की। उन्होंने कहा कि हमारे संस्थान का पूरा सहयोग और सहभाग इस कार्यक्रम में रहेगा। इस दौरान मुख्य संयोजक प्रोफेसर गोविंद नगर त्रिपाठी ने बताया कि अभी तक लगभग डेढ़ सौ मेहमानों के आने की स्वीकृति प्राप्त हो चुकी है 20 नवंबर से मेहमानों का आना शुरू हो जाएगा। 20 नवंबर को लगभग 30 मेहमान आएंगे, जिसमें  फिल्म उद्योग से जुड़े हुए लोग और दिल्ली व अन्य स्थानों के इतिहासकार व रचनाधर्मी होंगे।  कार्यक्रम संयोजक संदीप रिछारिया  ने बताया कि मेहमानों को रूकवाने के लिए व्यवस्थाएं पूरी हो चुकी है ,उन्हें आनंद रिजॉर्ट आरोग्यधाम कॉटेज के साथ ही अन्य होटल्स में रोकवाया जाएगा।
कार्यक्रम समन्वयक आनंद पटेल ने बताया कि मेहमानों के सम्मान में 21 नवंबर को आनंद रिसोर्ट में डिनर का कार्यक्रम होगा। इस डिनर के कार्यक्रम में स्थानीय व बाहर के कलाकार अपनी प्रस्तुतियां भी देंगे। यह कार्यक्रम प्राइवेट होगा। इस दौरान आरोग्यधाम के मुख्य प्रशासनिक अधिकारी अनिल जायसवाल,कौशल जी,राजेश जी त्रिपाठी, चितरंजन सिंह,आदि मौजूद रहे।

               व्यापारियों को संवेदित कर रहे शानू

अखिल भारतीय व्यापार प्रतिनिधि सभा के संगठन मंत्री शानू गुप्ता पिछले कई दिनों से लगातार जिले भर में दौरा कर व्यापारियों को चित्रकूट में आयोजित हो रहे  अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के आमंत्रण पत्र देकर लोगो से अधिक से अधिक संख्या में पहुंचने की अपील कर रहे है।
राष्ट्रीय साहित्य परिषद के जिलाध्यक्ष मनोज द्विवेदी भी   व्यवस्थाओं में पूर्ण रूप से लगे हुए हैं। 
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आमंत्रण पत्र के साथ पीले चावल बांट रही बहने

चित्रकूट अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन को लेकर बहनों के अंदर भी उत्साह चरम पर है भोर होते ही बहनों की टोलियां लोगों के घरों में पहुंचकर कार्यक्रम में आने के लिए आमंत्रण पत्र के साथ पीले चावल बांट रहे हैं। आयोजन समिति की कोर कमेटी की सदस्य सरस्वती देवी के साथ ही वैदेही खरे, अंजू श्रीवास्तव,वंदना,अनुभव,रचना यादव,दीक्षा आदि बहने इस काम में लगी है।

बैठक कर बनाई रणनीति
शनिवार की दोपहर बाबा घाट पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन को सुचारू से संपादित करने के लिए विशेष व्यवस्थाओं को लेकर महिलाओं ने रणनीति बनाई कोर कमेटी की सदस्य सरस्वती सोनी जी ने कहा कि इस कार्यक्रम में विदेश से तमाम महिलाएं आ रही हैं उनका सहयोग करने के लिए हमें पढ़ी-लिखी और उनसे बात करने में सक्षम महिलाओं की खोज करनी होगी इस दौरान वैशाली करने कहा कि इस ग्रुप में लगभग जितनी भी महिलाएं हैं सभी पढ़ी-लिखी और अंग्रेजी बोलने में लक्ष्य वैसे जो बाहर से महिलाएं आ रही हैं वह हिंदी और पंजाबी अंग्रेजी तीनों भाषाएं जानती हैं इसलिए इस मामले में कोई विशेष चिंता करने की जरूरत नहीं है।
             बैठक कर प्रचार रणनीति को अंतिम रूप देती बहने

 मंच पर सहयोग के लिए भी हमारी टीम भाई लोगों के साथ मिलकर काम करेगी। इस दौरान मीना देवी,मंजू केसरवानी,सुधा तिवारी,अल्पना सोनी,मंजू तिवारी,अंजू श्रीवास्तव,सौम्या श्रीवास्तव,अनुभा श्रीवास्तव,माधुरी सिंह,रेखा मिश्रा,रूपा खरे,अनुभा श्रीवास्तव,शिल्पी श्रीवास्तव,संजना श्रीवास्तव,सीमा शुक्ला, पदमा सिंह,गीता सिंह आदि शामिल रही।

Thursday, March 9, 2023

चित्रकूट महिमा अमित,,,, चित्रकूट की श्री के प्रथम घोषक महर्षि वाल्मीकि

            एक तात्विक विवेचन,,,,           
                                             ‘‘अस्य चित्रकूटस्य्‘‘         
                                              {द्वितीय सोपान}    


            उल्टा नाम जपति जग जाना बाल्मीकि भए ब्रहम समाना,, महर्षि वाल्मीकि एक ऐसे देदीप्तमान नक्षत्र के रूप में रामकथा में समाए हैं जिन्होंने रामकथा राम काल में लिखी, उन्होंने श्रीराम के चरित्र को अपनी आंखों से देखा और उसका भाषानुवाद रामायणम् के माध्यम से किया। श्रीराम का चरित्र चित्रण हो या फि चित्रकूट की महिमा का यशोगान वाल्मीकि जी ने पहली बार उसे विश्व के सामने लाने का प्रयास किया। श्रीराम के चित्रकूट आगमन के पूर्व के चित्रकूट को प्रकट करने का काम उन्होंने किया। रामकथा के अनुसार जब श्रीराम प्रयागराज में भारद्वाज मुनि के पास से चित्रकूट आने का निर्देश प्राप्त कर आते हैं तो लालापुर स्थित वाल्मीकि नदी के उपर पर्वत पर उनके पास पहुंचते हैं और जब वह चित्रकूट में निवास करने के लिए अपनी आकांक्षा प्रकट करते हैं तो महर्षि वाल्मीकि चित्रकूट का सम्पूर्ण वैभव उड़ेलकर रख देते हैं। इस बात की स्वीराकोक्ति मानसकार स्वयं कई बार करते हैं। 
ऐसे में श्रीरामचरितमानस में प्रथम चित्रकूट महिमा के गायक परिलक्षित होते है आदिकवि महर्षि वाल्मीकि........। और प्रथम श्रोतान्वेषण किया जाये तो कोई और नहीं निर्विवाद रूप में श्री राम ही होंगे। प्रभु श्री राम महर्षि के श्री चरणों का सानिध्य प्राप्त करते हैं, साथ ही स्वयं के निवास हेतु स्थान की आकांक्षा प्रगट करते हैं। उत्तर देते हुए महर्षि बोले-
 “पूछैहु मोहि किरहौं कहँ मै पूँछत सकुचाॅउं। 
जहाँ न होहु तहँ देहु कहि, तुम्हहि दिखाएं ठाऊँ ।।
सुनहुं राम अब कहउं निकेता, जहाँ बसहु सिय लखन समेता।

चैादह स्थानों का उल्लेख कर महर्षि निःसंकोच स्वीकार कर लेते अभी तक निर्दिष्ट स्थानों में समयानुकूलता का पूर्ण रूपेण अभाव है।
कह मुनि सुनहु भानुकुलनायक, आश्रम कहउँ समय सुखदायक,
चित्रकूट गिरि करहु निवासू, तँह तुम्हार सब भाँति सुपासू,, 
शैलु सुहावन कानन चारू, करि केहरि मृग बिहग बिहारू, 
’नदी पुनीत पुरान बखानी, अत्रि प्रिया निज तप बल आनी,, 
सुरसरि धार नाउँ मंदाकिनि, जो सब पातक पोतक डाकिनि,, 
अत्रि आदि मुनिवर बहु बसहीं, करहिं जोग जप तप तन कसहीं,,
चलहु सफल श्रम सबकर करहूँ, राम देहु गौरव गिरिवरहूं,,
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चित्रकूट महिमा अमित, कहीं महामुनि गाइ।
आइ नहाए सरित वर, सिय समेत दोउ भाइ।।
 महर्षि द्वारा प्रतिपादित चित्रकूट महात्म्य पाँच भागों में विभक्त
किया जा सकता है। 
प्रथम- करि केहरि विहग मृग संकुल शुचि सुहावन-गिरिकानन प्रदेश 
द्वितीय में पाप पुंज प्रशमनी प्रवाहमान पुण्य सलिला पयस्विनी (मंदाकिनी), तृतीय में-त्रयी त्राणदाता अमलात्मा विमलात्मा महामुनीन्द्र महर्षि अत्रि एवं अन्य तपः पूत महर्षिगण। 
चतुर्थ में चतुर्दिक चर्चित यश गाथा सम्पन्न चिर सनातन चित्रकूट, और पंचम में था... महिमामण्डित गिरि को गौरवान्वित करने का अनुरोध....
प्रथमतः महर्षि गिरि कानन की रमणीयता का बखान करते दिखाई देते हैं......पश्चात,, नदी पुनीत पुरान बखानी में था महिमामई मन्दाकिनी का बखान... जो सब पोतक पातक डाकिनी में प्रभाव सुरसरि धार नाउं मंदाकिनी में नाम और प्राकट्य तथा अत्रि प्रिया निज तप बल आनी में हुआ सही हेतु का निष्पादन। सुरसरि धार नाउं मंदाकिनी में कवि पुण्य सलिला पुराण प्रसिद्व देवसरि गंगा की उपधारा स्वीकारते हैं, परंतु आगे चलकर मानसकार इसी मंदाकिनी की महिमा में कहेंगे -‘‘सुरसरि सरसई दिनकर कन्या, मेकलसुता गोदावरी धन्या, सब सर सिंधु नदी नद नाना, मंदाकिनी कर करहिं बखाना‘,,,। एक ओर कवि मंदाकिनी को गंगा जी की उपधारा के रूप में कहते हैं तो दूसरी तरफ वही कवि ब्रहमद्रवरूपा सर्वतीर्थमषी देवसरि नाम से मंडित गंगा मंदाकिनी जी का वंदन करती दिखाई देती है। 
इतना ही नहीं भगवती सरस्वती, सूर्य पुत्री बृजनंदन पटरानी यमुना, शिव सानिध्यरता नर्मदा, गौरवमयी गोदावरि प्रभृति सकल भवन निकाय की समस्त पावन नद-नदी, सागर सभी के सभी मन्दाकिनी का प्रशस्ति गान करते दिखाई देते हैं तथा गंगा की उपधारा माने या गंगा से स्तुत्य पावनतिपावन पुनीत सरि.. ।
भागीरथी गंगा को महाभारत एवं पदम पुराण में त्रिपथ गामिनी, वाल्मीकि में त्रिपथगा, विष्णु धर्मोत्तर पुराण में त्रैलोक्य व्यापिनी और रघुवंश कुमार संभव तथा शाकुंतल नाटक में त्रिस्रोता कहा गया है। यथा-
‘गंगा त्रिपथगानाम दिव्या भागीरथीति च।
त्रीन् पयो भावयन्तीति तस्मात् त्रिपथगास्मृता।।
                            (वा,रा,-1/44/6)
‘‘विष्णु पादार्थ संम्भूते गंगे त्रिपथ गामिनी।
धर्मद्रवीति विख्याते पापं में हर जान्हवि।।‘‘
                            (प,पु,सृ-60)
‘‘ब्रहमन् विष्णु पदी गंगा त्रैलोक्यं व्याप्य तिष्ठति ‘‘
                             (वि.धर्मा- पुराणे)
गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी विनय पत्रिका में 
‘‘विष्णु पद सरोज जासि ईश शीश पर विभासि त्रिपथगासि पुन्यरासि पाप छालिका.......कहा है........।
श्रीमद् भागवत् के पंचम स्कंधानुसार राजा बलि से सीन पग पृथ्वी नापने के समय भगवान् का बायाँ चरण ब्रह्माण्ड के ऊपर चला गया, यहाँ ब्रह्मा जी ने प्रभु पद प्रक्षालित कर जलधार कमण्डल में स्थापित कर ली। पश्चात् राजर्षि भगीरथ के भागीरथ प्रयास से देवसरि गंगा पृथ्वी पर प्रादुर्भूत हुई। अवतरण काल में तीन भागो में विभक्त हो आकाश में मन्दाकिनी, पाताल में प्रभावती एवं भलोक में भागीरथी नाम से प्रख्यात हुई।
अस्तु चित्रकूटांचल प्रवाहित अत्रिप्रियाअनुसूया द्वारा प्रादुर्भूत मंदाकिनी मृत्युलोक प्रवाहिनी गंगा नहीं वरन् स्वर्गगंगा है। मन्दाकिनी वियद् गंगा इत्यमरे अर्थात् स्वर्ग गंगा देवसरि की धारा है। इसलिये मृत्युलोक पावनी भागीरथी इन्हीं का वन्दन करती है, क्योंकि भागीरथी गंगा में मृत्युलोक के प्राणी ही पाप-ताप धोते है यह सीधे स्वर्ग से आई है। स्वर्ग में तो पुण्यात्मा देववृन्द ही स्नान करते है अतः मन्दाकिनी श्रेष्ठ है। उनका सानिध्य पापियों से नहीं है, अत:-

‘‘सुरसइ सुरसरि दिनकर कन्या, मेकलसुता गोदावरि धन्या,,
 सब सर सिन्धु नदी नद नाना, मन्दाकिनि कर करहिं बखाना।।
इसलिए हम लोग धन्य है। जो हम जैसे मन्दभाग्यों को माता अपनी करूणा से सौभाग्य प्रदान कर रही है। यही पुष्टि होती है- बृहद् रामायणोक्त चित्रकूट महात्म्य से भी कुछ उद्घाटन किया जा सकता है । दृष्टव्य है कि महर्षि अगस्त्य से सुतीक्षण जी पूछते है,,,,
‘‘कस्मिन् काले वियद् गंगा आगता भुवि पुण्यदा।‘‘
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‘‘देव नद्यां ततः स्नात्वा गिरे कृत्वा प्रदक्षिणाम्।‘‘
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“सा देव गंगा विख्याता सद्यः पापहरा परा।‘‘
                            (वृ. रामायणे)
.........अस्तु देवसरि का अर्थ भागीरथी नहीं, ‘‘वियद् गंगा‘‘ स्वर्गगंगा है। अत्रिप्रिया निज तप बल आनी- में कवि प्रादुर्भाव एवं हेतु का उल्लेख करते है। अनुसूया- स्वायंभुवमनु को पुत्री देवी देवहूति और महर्षि कर्दम की बेटी भगवतावतार सिद्धेश्वर भगवान कपिल की ज्येष्ठ भगिनी एवं ब्रह्मा के मानसपुत्र त्रिदेव पूज्य महर्षि अत्रि की भार्या स्वयं पतिव्रता शिरोमणि, शिखरस्थ तपोधना, त्रिदेव माता जिसके नाम की व्याख्या शास्त्रों ने इस प्रकार की है,,,
‘‘न गुणान् गुणिनों हन्ति स्तौति चान्य गुणानपि। 
न हसेत् परदोषांश्च सानुसूया प्रकीर्त्यंते ।।‘‘
अर्थात् ! जो किसी के दोषों को न देखे पर उनके गुणों की स्तुति किये
बिना न रह सके....‘सानुसूया प्रकीर्त्यते‘ फिर भला मुझ जैसा अल्पज्ञ क्या? परिचय दे पायगा इस महाविभूति का......... वाल्मीकीय रामायण में स्वयं महर्षि अत्रि श्रीराम को उनका परिचय यों देते है
‘‘रामाय चा चचक्षे तां तापसी धर्म चारिणीम्। 
दश वर्षाण्यनावृष्ट्îा दग्धे लोके निरन्तरम् ।।
 यया मूल फले सृष्टे जान्हवी च प्रवर्तिता।
उपेण तपसा युक्ता नियमैश्चाप्य लंकृता।। 
‘‘दश वर्ष सहस्राणि यथा तप्तं महत्तपः। 
अनुसूया ब्रतैस्तात प्रत्यूहाश्च निवर्हिताः।। 
देवकार्य निमित्तं च यया संत्वरमाणया।
दश रात्रं कृता रात्रिः सेयं मातेवतेऽनमः। 
           (वा.रा.अयो. 117/9 से 12 तक) 
अर्थात- मुनि धर्मचारणी तापसी का परिचय महर्षि अत्रि श्री राम को देते हुये यो कहते है- दश वर्षों तक अनावृष्टि से संसार जलने लगा था। उस समय इसने फल मूल उत्पन्न किया, गंगा को यहाँ प्रवाहित किया दस हजार वर्षों तक जिसने कठोर तपस्या की। जिसकी उग्र तपस्या उत्तम नियमों से सुशोभित है। अनुसूया के व्रतों के प्रभाव से ही ऋषियों के विध्न और दुख दूर हुये थे। देवकार्य के लिये त्वरा रखने वाली जिसने दश रात्रि की एक रात्रि बनाई थी...... ये अनुसूया तुम्हारी माता सदृश्य पूज्य है। वस्तुतः इस माता के सदृश्य दूसरी कोई माता संसार में तो नहीं हो सकती क्योकि श्री हरि को पुत्र रूप में पाने वाली माताएँ तो अयोध्या, मधुरादि प्रदेशों में भी पाई जा सकती है परन्तु तीनों देवो को एक साथ जन्म देने वाली माता भारत भू पर तो क्या त्रैलोक्य में भी एक ही है।
जानिए,, कौन थे महराज अत्रि
लोक पितामह ब्रह्मा के नेत्रों से उत्पन्न, द्वितीय मानस पुत्र पूर्व प्रजापति, देवत्रयावतार, लोक प्रसिद्ध दत्तात्रेय चंद्रमा एवं महर्षि दुर्वासा के जनक , सप्तऋषि मण्डल प्रपूज्य अत्रि स्मृति, अत्रि संहिता प्रख्यात ग्रन्थों के प्रणेता सुप्रसिद्ध बैदिक मंत्र दृष्टा ऋषि, त्रैलोक्य पूज्या सती शिरोमणि अनुसूया के पति तपःपूत महर्षि अत्रि, जिनकी यश गाथा, उपाख्यानों से पुराण साहित्य भरा पड़ा है। बृहद् ज्ञानार्जन हेतु दृष्टव्य है- महाभारत, ब्रह्म मत्स्य, स्कन्द व नरसिंह प्रभृति पुराण एवं समस्त राम काव्य

1. ‘अक्षणोऽत्रि।‘ (श्रीमद्रा. 3/12/24)
2. ‘‘मरीचिरऽत्रयडि0रसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः, भृगुर्वशिष्ठो दक्षश्च दशमस्तत्र नारदः‘‘ (श्रीमद्रा. 3/12/22)
3‐ ‘‘सोमोऽभूद् ब्रह्मणोऽशेन दत्तो विष्णोस्तु योगवित् दुर्वासा शंकरस्यांशे।‘‘
                                       (श्रीमद्रा. 4/1/33)

‘‘जॅह जनमे जग जनक जगतपति विधि हरि हर परिहरि प्रपंच छलु‘‘
                                                    (विनये)
4‐ “सप्त व्याहतीनाम् विश्वामित्र जमदग्नि भरद्वाज गौतमात्रि वशिष्ठ कश्यपा ऋषियो। (शु. यजु.)
5. ऋग्वेद का पंचम मण्डल आत्रेय मण्डल के नाम से प्रसिद्ध है। श्री सूत्र प्रभृति खिल सूत्र इसी आत्रेय मण्डल के परिशिष्ट भाग है। 
6. अत्रि का अर्थ ही होता है-त्रिगुणातीत। 
ये सच्चे अर्थों में अनुसूया पति है। जब तक जीव की देवी युद्ध असूया रहित न हो जाये, तब तक कोई भी व्यक्ति अत्रि हो ही नहीं सकता और अत्रि विना हये कोई भी परम विरागी नही हो सकता है। मानसकार के शब्दों में कहिय वात सो परम विरागी, न सम सिद्धि वीन गुन त्यागी। और परम विरागो हुए बिना प्रभु हृदय में नहीं विराजते...। महाभारत में स्वयं अत्रि अपने नाम की व्याख्या यों करते है। 
अरात्रिरत्रिः सा रात्रियां नाधीते त्रिरद्यवै। 
अरात्रिरत्रि रित्येव नाम में विद्धि शोभने ।। 
           (महाभारत अनु.दान धर्म पर्व- 93/82,
 अर्थात-कामादि शुक्रओं से त्राण करने वाले को अरात्रि कहते है और अत् (मृत्यु) से बचाने वाला अत्रि कहलाता है। इस प्रकार मैं ही अरात्रि होने के कारण अत्रि हैं। जब तक जोव को एकमात्र परमात्मा का ज्ञान नहीं होता, तबतक की अवस्था रात्रि कहलाती है। अज्ञानावस्था से रहित होने के कारण भी मैं अत्रि हूँ। सम्पूर्ण प्राणियों के लिये अज्ञात होने के कारण जो रात्रि के. समान है उस परमात्मतत्व में मैं सदा जाग्रत रहता है, अतरू वह मेरे लिये अरात्रि के समान है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार भी मैं अरात्रि और अत्रि नाम धारण करता हूँ। यही मेरे नाम का तात्पर्य है। इसी पर्व में एक और उपाख्यान प्राप्त होता है जो महर्षि अत्रि की महिमा प्रभाव को प्रगट करता है।
धोरे तमस्ययुध्यन्त सहिता देवदानबाः। 
अविध्यत शरैस्तत्र स्वभानुः सोम भास्करौ।। 
अथ ते तमसा ग्रस्ता निहन्यन्तेस्म दानवैः।
 देवा नृपति शार्दुल सहैव वलिभिस्तदा।। 
असुरैर्वध्यमानास्ते क्षीण प्राणा दिवौकसः। 
अपश्यन्त तपस्यन्तमत्रिं विप्र तपोधनम्।।
 अर्थैनमब्रुवन् देवारू शान्तक्रोधं जितेन्द्रियम्। 
असुरैरिषुभिर्विद्धौ चन्द्रादित्याविमावु भौ ।। 
वर्य वघ्यामहे चापि शत्रुभिस्तमसावृते। 
नाधिगच्छाम शानिां च भयात् त्रायस्थै नः प्रभो ॥
            अत्रि उवाच-

कथं रक्षामिभवतस्ते ऽत्चुवंश्चन्द्रमाभव।
विमिरम्नश्च सविता दस्युहन्ता च नो भव।।
एवमुक्तस्तदात्रियें तमोनुदभवच्छशी। 
अपश्यत् सौम्यभावाच्य सोमवत् प्रियदर्शनः। 
दृष्ट्वा नातिप्रमं सोमं तथा सूर्य च पार्थिव।
प्रकाशमकरोदत्रिस्तपसा स्वेन संयुगे।।
तगद् वितिमिरं चापि प्रदीप्तमकरोत् तदा। 
व्यजयच्छरसंधांश्च देवानां स्वेन तेजसा।।
अत्रिणाद्यमानांस्तान् दृष्टा देवा महासुरान्। 
पराक्रमैस्ते ऽपि तदा व्यघ्नन्नत्रि सुरक्षिताः।। 
उद्रासितश्च सविता देवास्त्राता हतासुराः। 
अत्रिणात्वथ सामर्थ्य कुतमुत्तम तेजसा।।
द्विजेनाग्नि द्वितीयेन जपता चर्मवाससा। 
फल भक्षेण राजर्षे पश्य कर्मात्रिणा कृतम्।।
          (अनु. दानधर्म पर्व-1562 से 13) 
प्राचीन काल में एक बार देव-दानव घोर अंधकार में संग्रामरत थे, राहु ने अपने बाणों से सूर्य एवं चन्द्रमा को घायल कर दिया था। अंधकार में फंसे देवता कुछ सूझ न पड़ने के कारण एक साथ बलवान राक्षसों से मारे जाने लगे। असुरों की मार से देवताओं की प्राणशक्ति क्षीण हो चली और वे भागकर तपोरत महर्षि अत्रि के पास गये वहाँ उन्होनें उन क्रोध शून्य जितेन्द्रिय मुनि का दर्शन किया और इस प्रकार कहा-प्रभो! असुरों ने अपने बाणों द्वारा चन्द्र और सूर्य को घायल कर दिया है और अब घोर अंधकार छा जाने के कारण हम सभी शत्रुओ के हाथों मारे जा रहे हैं। हमें तनिक भी शान्ति नहीं मिलती। अब कृपा करके हमारी रक्षा कीजिये, हम आपकी शरण में है।
अ़ि़त्र बोले-महाभाग देवताओं! भला मैं आप लोगों की किस प्रकार रक्षा करूं, यह बताओ....? देवता बोले-प्रभु! आप अंधकार को नष्ट करने वाले चन्द्रमा और सूर्य का रूप धारण कीजिये। सर्वप्रथम तो संसार को अंधकार से मुक्त कीजिये, फिर अपने तेज से इन शत्रु बने दस्यु दानवों का नाश कीजिये......।
देवताओं के ऐसा कहने पर अत्रि ने अंधकार को दूर करने वाले चन्द्रमा का रूप धारण किया और सोम के समान देखने में प्रिय लगने लगे। उन्होंने शान्त भाव से देवताओं को ओर देखा। उस समय चन्द्रमा और सूर्य की प्रभा मंद देख अत्रि ने अपनी तपस्या से उस युद्ध भूमि में प्रकाश फैलाया तथा संपूर्ण जगत को अंधकार शून्य कर आलोकित कर दिया। साथ ही अपने प्रखर तेज से देवताओं के शत्रु असुरों को दग्य कर दिया। अत्रि तेज से असुरों को दगध होते देख अत्रि द्वारा सुरक्षित देवों ने भी पराक्रम दिखाया, रैत्यों को मारने लगे। महर्षि ने सूर्य को तेजोमय बनाकर देवों का हो नहीं समस्त सृष्टि का कल्याण किया। ऐसे महामुनि अत्रि गायत्री जापक मृग चर्मधारी फलाहारी, अग्निहोत्री उत्तम तेज से युक्त ब्राह्मण है, उन्होंने जो महान कार्य किया, उन पर दृष्टिपात करेंगे। ऐसे महर्षियों से सेवित था चित्रकूट ,..।
श्रीमद् भागवत में तो उन्हें अपने पिता (ब्रह्मा) के समान ही कहा गया है
जातस्यासीत् सुतोधातुरत्रिः पितृसमो गुणैः 
               (श्रीमद् भागवत- 9/14/2) 
यदि ब्रह्मा ने अत्रि को नेत्र से पैदा किया था तो अत्रि ने भी अपने नेत्र से जगत् नेत्र चन्द्रमा को पैदा किया था
तस्या दृग्म्योऽभवत्् पुत्रः सोमोऽमृत मयः किल
                    (श्रीमद् भागवत- 9/14/3) 
....अस्तु! ऐसी-ऐसी महान विभूतियों से चित्रकूट श्री राम के आगमन के पूर्व सेवित था।
वैसे अगर इसी आख्यान को देखें तो महर्षि केवल एक मात्र अत्रि जी की ही चर्चा नहीं करते अपितु् अत्रि आदि मुनिवर वहु बसही और अन्य भी कोई कम नहीं, जैसे-इन्हीं के तीनों पुत्र त्रिदेव अवतार है। भगवतावतार अवधूत भगवान् दन्तात्रेय-ये तो स्वयं हरि हो थे...... तो द्वितीय पुत्र शिवावतार महर्षि दुर्वासा, जिन की यश गाथा, उपाख्यान पुराण प्रसिद्ध है। वह ऊध्वरेता, महातपस्वी, महानतम, क्रोधी परन्तु परम दयालु भी। पद्म पुराण में वर्णन आता है
अत्रि पुत्रस्तु दुर्वासा परिभ्रमन् महीमिमाम्
विद्याधरी करेमालां धष्ट्वास्म गंधकी शुभाम्
याचयामास में देहि जटाजूटे करोम्यहम् 
ददौवस्मै मुदा युक्तं तां मालाम.......
       (पद्म पुराण सू. 4/5-6) 
एक बार अत्रि पुत्र दुर्वासा भ्रमण में थे कि एक विद्याधरी श्री लक्ष्मी जी की दी हुई प्रसादित माला लिये जा रही थी, उससे वह माला दुर्वासा जी ने मांग ली। अकस्मात् ही उन्हें देवराज इन्द्र दीख पड़े, प्रसन्न होकर वह माला आर्शीवाद स्वरूप ऐरावतारूढ़ देवराज की ओर उछाल दी । संयोग से माला देवराज के गले में न पड़ सकी, किन्तु देवराज ने उसे हाथ में पकड़ ली और ऐरावत के मस्तक पर रख दी। किन्तु दुर्भाग्य से ऐरावत ने सूंड से बह माला पृथ्वी पर फेंक दी-
’करेणादाय तां मालां चिक्षेप पृथिवी तले‘
 प्रभु निर्माल्य का घोर अपमान देखकर महर्षि ने देवराज को ऐश्वर्य भृष्ट होने का घोर शाप दे डाला-
‘तस्माखणस्य लक्ष्मीकं त्रैलोक्य ते भविष्यति‘
 महर्षि ने बहुत अनुनय विनयोपरान्त भी देवराज को क्षमा नहीं
इन्द्र को यह शाप भोगना ही पड़ा था।

                     (2)
अम्बरीष दुर्वासोपाख्यान तो सर्वविदित ही है। अम्बरीष से प्रतिशोध लेने हेतु महर्षि ने घोर तप किया। जब हरि प्रसन्न हो वरदान देने पधारे तो महर्षि ने राजा अम्बरीष को भूतल पर विविध योनियों में जन्म लेने का वरदान माँगा। प्रभु ने कहा-मेरे धाम में पहुंचने वाले भक्त का पुनः जन्म नहीं होता। अस्तु, अपने भक्त के बदले में मैं ही अब विविध रूपों में पृथ्वी पर दस बार जन्म लँूगा। धन्य है वह महर्षि जो प्रभु के दशावतार का है- बने, जिसका उल्लेख गोस्वामी जी विनय पत्रिका में करते हुए कहते हैं -
 जाको नाम लिये छूटत भव, जनम मरन दुख भार । 
अम्बरीष-हित लागि कृपानिधि सोइ जनमें दस बार।।
                              (विनय पत्रिका 98 पद)

                             (3)
 मुद्गल ब्राह्मण की परीक्षा लेकर उन्हें सदेह स्वर्ग भेजने के लिये स्वर्ग से विमान ही मंगा दिया था
सशरीरो भवान् गन्ता स्वर्ग सुचरितव्रत।
इत्येवं बदतस्तस्य तदा दुर्वाससोमुनेः।।
देवदूतो विमानेन मुद्गलं प्रत्युपस्थितः
         (महाभारत वन पर्व- 260/29-30) 
अर्थात-उत्तम व्रत का पालन करने वाले महर्षि तुम सदेह स्वर्ग जाओ, दुर्वासा इस तरह कह ही रहे थे कि देवदूत विमान लेकर मुद्गल ऋषि को लेने आ गये। किन्तु मुद्गल ने ही जाना स्वीकार नहीं किया। ज्ञातव्य है कि महर्षि वशिष्ठ, जिनके संबंध में गोस्वामी जी बड़ा डिमडिम घोष करते हैं कि-
बड़ वशिष्ठ सम को जग माही
किन्तु त्रिशंकु को सदेह स्वर्ग न भेज सके थे। साथ ही महर्षि
विश्वामित्र भी अपने तपचल से हो भजते है, विमान मंगा नही सके। त्रिशंकु की अंतिम परिणति क्या हुई...? 
चित्रकूटांचल के महर्षियों में स्वनामधन्य महर्षि शरभंग भी अपनी
उत्कृष्ट साधना द्वारा देव पूज्य बने थे, मृत्यु लोक की बात ही क्या। उन्होंने अपने तप बत से प्रहलाद जैसे देव लोकों पर भी विजय पताका फहराई थी जिसका वृतान्त प्रभु श्री राम को स्वयं महर्षि शरभंग इन शब्दों में सुनाते है

अक्षया नरशर्दूल जिता लोकामया शुभाः।
बाहृयाश्च नाक पृष्ठ्याश्च प्रति गृहहणीष्व मामकान्।।
                             (वा.रा.अ.-5/31)
 अर्थात्-श्री राम से महर्षि शरभंग बोले-हे नर श्रेष्ठ राम! अक्षय ब्रह्मलोक तथा स्वर्गलोक मैंने जीत लिये है। ये शुभ लोक मैं तुम्हें अर्पण करता हूँ, तुम इन्हें गृहण करो।
महर्षि शरभंग के आश्रम के निकट जब श्री राम पहुंचे है तब उन्होंने स्वयं ही नहीं लक्ष्मण को भी दिखाया था कि लोक पितामह ब्रह्मा के आदेश से देवराज इन्द्र विमान लिये आकाश में खड़े थे, उन्हें ब्रह्मलोक ले जाने हेतु.... जिसका वाल्मीकीय रामायण में विस्तार सहित वर्णन पाया जाता है। रामचरित मानस में भी कवि कहते है
जात रहेउ विरंचि के पागा, सुनेउं श्रवन वन एहहिं रामा,, 
चितवत पंथ रहेउं दिन राती, अब प्रभु देखि जुड़ानी छाती,, 
जिनकी सेवा हेतु देवलोक वासी हो नहीं स्वयं लोक पितामह आकुल हो, ऐसे चित्रकूटबासी महर्षियों की गौरव गाथाओं से भारतीय वाड्मय भरा पड़ा है।
इसलिए ! एक ओर थे देवों द्वारा सत्कृत, पूज्य ब्रह्मलोक जगी स्वनाम धन्य शरभंग जैसे महर्षि और दूसरी और देवराज इन्द्र को प्रताडित करने वाले महर्षि दुर्वासा. ..... तो तीसरी और देवों को भी सुरक्षा प्रदान करने वाले त्रैलोक्य संरक्षक महर्षि अत्रि जो स्वयं सूर्य-चन्द्र बन कर विश्व में आलोक बिखेर रहे थे। माँ अनुसूया की गौरव गाथा भी कम नहीं।

चैथी ओर श्री राम एवं भगवान परशुराम दानों हरि अवतारों की साधना ली है।श्री राम के आने के पूर्व दो अवतारों की (दत्तात्रेय एवं हंस)जन्मभूमि होने का गौरव प्राप्त करने वाली चित्रकूट की वसुन्धरा पूर्व से ही महिमा मंडित हो चुकी थी। चैथी ओर अवतार क्रय की साधना स्थली (श्रीराम, परशुराम एवं हयग्रीवावतार) स्वयं श्री हरि भी अवतार ले चुके थे। प्रथम भगवान दत्तात्रेय और द्वितीय हंसावतार का वर्णन वृहद रामायण में वर्णन में मिलता है-
तस्यैव निकटे विद्वन्नेक हंसेति विश्रुतम्। 
हंस स्वरूपी भगवान्् यत्राविरभवत्पुरा।।
अर्थात- रामानुज तीर्थ के निकट हंस नाम का प्रसिद्ध तीर्थ है, जहाँ हंस स्वरूपी भगवान प्रगट हुये थे (वर्तमान में इसे मगराकुण्ड कहा जाता है) श्री हरि के अवतार द्वय के अतिरिक्त यहाँ विधि हरि हर त्रिदेव (दत्तात्रेय, दु्र्वासा व चन्द्रमा) अवतार धारण करते हैं, फिर भला एक-एक अवतार की अवतरण भूमि अयोध्या मधुरा की तो क्या त्रैलोक्य में चित्रकूट की कोई तुलना नहीं है।ये सभी गांथाएं श्री राम के आगमन के पूर्व की हैं। 
महर्षि वाल्मीकि के कथनानुसार,,,
अत्रि आदि मुनिवर बहु बसहिं, करहिं जोग जप तन कसहीं,.
चलहु सफल श्रम सब कर करहू, राम देहु गौरव गिरिवरहू। 
       चित्रकूट महिमा अमित, कही महामुनि गाई
 .....रेखांकित चित्रकूट महिमा अमित वाक्य महर्षि वाल्मीकि का है और स्वयं श्री राम से ही कहा गया है। तब ये निश्चित प्राय है कि श्री राम के पूर्व भी श्री चित्रकूट की अमित महिमा थी। श्री राम के आगमन से नही.....। अधिक क्या? अयोध्या साम्राज्य का राज सिंहासन उत्तराधिकार सम्पन्न पैत्रिक साथ ही जेठ स्वामि सेवक लघु भाई के अनुसार पूर्ण संवैधानिक होते हुए भी अयोध्या के राम प्राप्त न कर सके थे किन्तु चित्रकूट के सम की उसी सिंहासन पर पादुकाएँ प्रपूजित हो गई। जो चित्रकूट महत्ता का प्रत्यक्ष उदाहरण है।
महर्षि में इन वाक्यों में सुस्पष्ट कर दिया कि चित्रकूट के पास महिमा तो पूर्व से हो है, आप गरिमा प्रदान कौजिये- राम देहु गौरव गिरिवर और प्रभु श्री राम गरिमा ही प्रदान करते है, महिमा नहीं। महिमा तो प्रभु ने जाकर स्वयं देखी थी-
चित्रकूट महिमा अमित, कही महामुनि गाइ।
आइ नहाए सरितवर, सिय समेत दोउ भाइ।।
रघुवर कहेउ लखन भल घाटू, करहु कतहुँ अब ठाहर ठाटू।
लखन दीख पय उतर करारा, चहुँ दिसि फिरेउ धनुष जिमि नारा।।
नदी पनच सर सम दम दाना, सकल कलध कलि साउज नाना। 
चित्रकूट जनु अचल अहेरी, चुकइ न घात मार मूठभेरी
 अस कहि लखन ठाँउ देखरावा, थलु विलोकि रघुवर सुख पावा
चित्रकूट महिमा अमित,,,,अभी तक भले ही महर्षि द्वारा प्रतिपादित श्रवणेन्द्रियों से सुना महिमा गान हो, किन्तु रेखांकित पंक्तियों में सुना गया महिमा गान मही, वरन् पूर्ण रूपेण चित्रकूट का प्रभाव प्रत्यक्षदर्शी प्रभु ने स्वयं अपनी आँखों देखा था। अस्तु ,, श्री राम के आगमन को पूर्व चित्रकूट महिमा प्रभाव से पूर्ण रूपेण परिपूर्ण था। 
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श्री राम परिपूर्णतम परमात्मा हैं। उनका प्रार्दुभाव केवल दशकंधर को मारने के लिए नहीं वरन् एक बड़ा संदेश देने के लिए हुआ था। तभी उनके नाम के साथ मर्यादापुरूषोत्तम जुड़ा। यानि वह व्यक्ति जो पुरूषों में उत्तम है मर्यादित आचरण वाला है श्री चित्रकूट में आकर निवास करता है। श्री चित्रकूटधाम तो महातीर्थ है, यहां पर सतयुग से लेकर आज तक प्रभु स्वरूप विभिन्न लीलाओं का वर्णन विभिन्न ग्रंथों में है। चित्रकूट अपने आपमें सम्पूर्ण महातीर्थ है। 
  जगद्गुरू रामस्वरूपाचार्य जी महराज 
  श्री कामतानाथ पीठाधीश्वर, चित्रकूट   


संदीप रिछारिया





Tuesday, March 7, 2023

एक समग्र दृष्टिः क्या है चित्रकूट का अर्थ

                                         अस्य चित्रकूटस्य् 

                           

चित्रकूट का नाम उच्चारण करते ही मस्तिष्क में सर्वप्रथम आता है कि आखिर इस भूमि का नाम चित्रकूट क्यों है, इसका वास्तविक अर्थ क्या है, क्या यह केवल प्रभु श्री राम की 11 साल 6 महीने 18 दिनों की वह लीला भूमि है, जहां पर आकर प्रभु श्रीराम ने समाज के सबसे निम्न तबके से माने जाने वाले कोल किरातों से मित्रता की और देवराज इंद्र से पूजित ऋषियों के आश्रमों में जाकर उनके दर्शन किए। जानते हैं कि वास्तव में चित्रकूट शब्द के क्या अर्थ हैं और इसकी सीमा कहां तक है।  
वर्तमान चित्रकूट एक ओर किसी स्थान विशेष का नाम न होकर श्रीराम की वनवासकालीन दो प्रान्तों में विभक्त वन लीला भूमि का नाम माना जाता है। इसका केंद्र बिंदु भगवान श्रीराम के निवास करने वाले स्थान श्रीकामदगिरि पर्वत को मानते हुए, इसके चारो ओर चैरासी कोस के परिक्षेत्र को चित्रकूटधाम माना जाता है। संतों का मत है कि केन नदी से लेकर यमुना और यमुना से विध्यांचल की पर्वत श्रंखलाएं होते हुए फिर केन का उद्गम ही वास्तविक चित्रकूट है। शायद इन्हीं कारणो के चलते वर्ष 2000 में जब श्रीराम मंदिर आंदोलन के नायक पूर्व मुख्यमंत्री श्रीकल्याण सिंह जी चित्रकूट जिले को नाम दिया तो चार जिलों का नया मंडल चित्रकूटधाम के रूप में बनाया। इसका मुख्यालय बांदा को बनाया गया। स्थानीय तौर पर देखें तो रामघाट, नयागांव, कामता, खोही, चितरागोकुलपुर, सीतापुर सहित अन्य सभी स्थानों को चित्रकूट ही कहा जाता है।  वस्तुतः चित्रकूट, चित्र-विचित्र कूटों वाले कामदगिरि का ही पुरातन एवं सनातन नाम है। यही समस्त काव्य पुराणों में परिलक्षित होता है। जो श्रीराम आगमन पूर्व भी पूर्ण रूपेण प्रख्यात था। आदि कवि वाल्मीकि द्वारा उल्लिखित ‘चित्रकूट इति ख्यातो‘ से पुष्ट है। विचारणीय यह है कि इस स्थान का नाम चित्रकूट ही क्यों पड़ा? वैसे तो विद्वान पुरूष अपने अनुसार चित्रकूट नाम की अपने हिसाब से तमाम तरह से परिभाषाएं बताते हैं, लेकिन मेरे हिसाब से कुछ व्युत्पत्तियाँ निम्न हैं -
(1) चित्रः अशोकः वृक्षः आच्छादयते यस्मिन् स कूटः चित्रकूटः। 
(2) चित्रः अशोकः आल्हादः विलसति यत्र स कूटः चित्रकूटः। 
(3) चित्रः नाम अशोकः यस्य महिमा प्रभावो यस्य स कूटः चित्रकूटः। 
(4) चित्रः विचित्रो रूप दर्शनम् समग्रम् यस्मिन् स कूटः चित्रकूटः।
(5) चि नाम चित्तम् त्रायतेऽत्र तच्चित्रः स कूटः चित्रकूटः।
(6) चि नाम चित्तम् त्रः त्राणम् प्राप्नोति यत्र कूटः कूटस्थः स्थिरः स चित्रकूटः।
(7) यत्र चित्तस्य कूटत्वं शान्तिर्भवति स चित्रकूटः।
(8) चित् शक्तिः कूटस्थः यत्र स चित्रकूटः।
(9) यत्र प्रभोरेव चित्तम् स्थिरम् भवति स चित्रकूटः। 
(10) यत्र भक्तानाम् चित्तम् कूटस्थं भवति स चित्रकूटः।
उपरियुक्त व्युत्पत्तियाँ मान्य महर्षियों के आर्ष वचनों पर आधारित हैं जैसे ,,,,
‘चित्रः विचित्रो रूप दर्शनम् समग्रम् यस्मिन् स कूटः चित्रकूटः। 
पश्येममचलं भद्रे नाना द्विजगणायुतम्।
शिखरैः खमिवोद्विद्वैर्धातुमाद्भिर्विभूषितम्।।
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केचिद्रजत संकाशाः केचित्क्षतज संनिभाः।
पीतमाजिष्ठ वर्णाश्च केचिन्मणि वरप्रभाः।।
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पुष्पार्क केतकाभाश्च केचिंज्ज्योति रसप्रभाः। 
विराजन्तेऽचलेन्द्रस्य देशाधातुविभूषिताः ॥
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विचित्र शिखरे  ह्ास्मिन्रतवानमिस्म भामिनिः।
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शिलाः शैलस्यशोभन्ते विशालाः शतशोऽभितः।
 बहुला बहुलैर्वणै नीलपीत सितारुणः।।
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निशिभान्त्यचलेन्द्रस्य हुताशन शिखा इव।
 औषध्यः स्वप्रभालक्ष्म्या भजमानाः सहस्रशः।।
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वस्वौकसारां नलिनीमतीत्यैवोत्तरान्कुरून्। 
पर्वतश्चित्रकूटोऽसी बहुमूल फलोदकः।।
(वा.रा.अयो.काण्ड, सर्ग-94/4-5-6-16-20-21-26)

अर्थात-हे भमिनि सीते! इस चित्रकूट पर्वत की रमणीयता को देखो। जिसके पक्षिसंकुल गगनभेदी उत्तुङ्ग. शिखर अनेक धातुओं से सुशोभित हो रहे है। इसके प्रदेश चाँदी के सदृश श्वेत दिखाई पड़ रहे हैं तो कोई रूधिर की तरह लाल..... तो कोई पीत और मंजिष्ठ वर्ण के हैं, तो कोई इन्द्र नीलमणि के सदृश्य प्रतीत होते हैं। कहीं की भूमि पुखराज की तरह, कहीं की स्फटिक की तरह... नहीं की भूमि केवड़ा के पुष्प की तरह, कहीं की ताराओं की तरह चमकीली प्रतीत हो रही है, तो कहीं की पारद तरह दिखाई देती है। यह चित्रकूट प्रदेश भिन्न-भिन्न वर्णो की धातुओं के कारण विचित्र रूप वाला दिखाई देता है। इसलिये मै इससे प्रेम करता हूँ।
इस पर्वत के इधर-उधर अनेक वर्णो की विशाल शिलायें सुशोभित हो रही हैं। कोई लाल तो कोई पीली तो कोई सफेद है। रात्रि में पर्वत पर औषधियां अग्निशिखा सी प्रतीत होती हैं।  बहु फल-फूल मूल वाला चित्रकूट पर्वत कुबेर, इन्द्र और कुरू देश को भी अपनी शोभा से जीत रहा है। गोस्वामी जी के शब्दों में कहें तो 
शैल सुहावन कानन चारू, करि केहरि मृग बिहग बिहारू, ’’
विबुध विपिन जहँ लगि जग माहीं, देखि रामवन सकल सिहाही,,
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जो वन शैल सुभाय सुहावन, मंगलमय अति पावन-पावन। महिमा कहिय कवन विधि लाहू, सुख सागर जहं कीन्ह निवासू।।
कहि न सकहिं सुधा लस कामन, जो सत सहस होहि सहसानन,
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चारू विचित्र पवित्र विशेषी, बूझत भरत दिव्य सब देखी। 
                            - मानस 
सुधि अवनि सुहावनि आल-वाल, कानन विचित्र वारी विशाल
                                 - विनय पत्रिका 
‘यत्र प्रभोरेव चिन्तम् स्थिरम् भवति स चित्रकूटः। ‘
नं राज्य भ्रशंनं भद्रे न सुहृद्भिर्विना भवः ।
मनो में बांधते दृष्टवा रमणीयमिमं गिरिम्।।
अर्थात्ः  इस रमणीय चित्रकूट पर्वत को देखकर राज्य एवं मित्रों से बिछुड़ने का कष्ट हो नहीं होता।
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यदोह शरदोऽनेकास्त्वया सार्धमनिन्दिते।
लक्ष्मणेन च वत्स्यामि नमो शोकः प्रधर्षति।
विचित्र शिखरे ह्यास्मिन्रतवानस्मि भामिनि
अर्थात: हे सुन्दरि! तुम्हारे और लक्ष्मण के साथ अनेक वर्षों तक भी यदि मुझे रहना पड़े, तो मैं रहूंगा। इस विचित्र शिखर वाले पर्वत से मैं प्रेम करता हूँ।
(वा.रा.अयो.काण्ड-94/3-15-16)
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दर्शनं चित्रकूटरय मन्दाकिन्याश्च शोभने। 
अधिकं पुट्यासाच्य मन्ये तवच दर्शनात्।।
           (वा.रा.अयो.काण्ड-95/12)
अर्थातः चित्रकूट एवं मंदाकिनी का दर्शन और तुम्हारा सहयास अयोध्या वास से भी मुझे अच्छा लगता हैं। 
मानसकार के शब्दों में कहें तो,,,
अस कहि लया ठांउ देखरावा, 
थलु बिलोकि रघवुर सुख पावा।
महिमा कहिय कवनि विधि तासू, 
सुख सागर जहं कीन्ह निवासू ।
पय प्योधि तज अवध विहाई
जॅह सियराम रहे अरगाई। 
                -मानस
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सुधि अवनि सुहावनि आल बाल
              -विनय पत्रिका
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चित्रकूट पर राउर जानि अधिक अनुराग।
सखा सहित जनु रति पति आएउ खेलन फागु।।
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क्यों कहों चित्रकूट गिरि सम्मति महिमा मोद मनोहरताई। तुलसी जॅह बसि लखन राम सिय आनंद-अवधि अवध बिसराई।।
                                   -गीतावलि
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‘ यत्र चिन्तस्य कूटत्वं शान्तिर्भवति स चित्रकूटः‘
 यावता चित्रकूटस्य नरः श्रृंगाण्यवेक्षते। 
कल्याणानि समाधत्ते न मोहे कुरुते मनः।।

                  (वा.रा.अयो.काण्ड-54/30)
अर्थात- मनुष्य जहाँ से चित्रकूट पर्वत का शिखर देखता है, वहीं से उसका मन पुण्य कार्यो में लग जाता है फिर पापों की ओर नही जाता। 
वैसे इसी बात को सपाट शब्दों ने मानसकार ने भी कहा है,,
अवलोकत अपहरत विषादा में या: विनय पद‘ सब सोच विमोचन चित्रकूट,, कलि हरन-करन कल्यान बूट में यही कहा गया है।
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अब चित चेति चित्रकूटहिं चलु,
शैल-श्रृंग भव भंग-हेतु लखु दलन कपट पाखण्ड दंभ दलु।
                                     (विनय पत्रिका) 
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नदी पनच सर सम दम दाना, सकल कलुष कलि साउज नाना                         
                       या 
      ‘जाई न वरन रामवन चितवत चित हर लेत
                                  (गीतावलि) 

चित्रः अशोकः आल्हाद विलसति यत्र स कूटः चित्रकूटः
सर्वनाश करने वाले शोक के सम्बंध में आदि कवि का कथन है       शोको नाशयते धैर्य शोको नाशयति श्रुतम्।
शोको नाशयते सर्व नास्ति शोक समे रिपुः।।
                     (वा.रा. 2/62/15) 
पर कामद गिरि मानव का ही नही स्वयं श्री हरि का भी शोक हरण करता है। प्रस्तुत है प्रभु का ही स्वीकारोक्ति वाक्य
‘लक्ष्मणेन च वत्स्यामि न मां शोकः प्रधर्षति‘
                         (वा.रा. 2/94/15)
 भामिनि! तुम्हारे और लक्ष्मण के साथ शोक रहित (आल्हाद से) अनेकों वर्षों तक इस पर्वत पर रह सकता हूँ। 
गोस्वामी जी भी कहते है --------(विनय पत्रिका)
‘ सब सोच विमोचन चित्रकूट‘
 भैया भरत तो प्रत्यक्षदर्शी है, वह जब चित्रकूट आकर दूर से देखते हैं तो मानसकार कुछ इस तरह से प्रस्तुति देते हैं। 
राम शैल वन देखन जाही, 
जहं सुख सकल सकल दुख नाही,

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यत्र भक्तानाम् चित्तं कूटस्थं भवति स चित्रकूटः
 अति मात्रमयं देशो मनोज्ञः प्रतिभाति मे। 
तापसानां निवासोऽयं व्यक्तं स्वर्ग पथोऽनय
                   (वा.रा.अयो.काण्ड-93/18)
चित्रकूट यात्रा में भैया भरत कहते है- यह देश मुझे बहुत ही मनोहर जान पड़ रहा है। निष्पाप! यह तपस्वियो का स्थान है, स्पष्ट यह स्वर्ग है। अधिक क्या कहूँ.....? कैकेई अम्बा को ही लें- जिन्हें स्वयं महाराज श्री दशरथ ही क्या सभी गणमान्य नागरिकों ने समझाया था। महर्षि वशिष्ठ तो बल्कल वस्त्र धारिणी सीता को देखकर धमकीे ही दे बैठे थे- अरी कुल कलंकिनी! तू महाराज को धोखा दे कर सीता को भी बन भेजना चाहती है...? मैं नहीं जाने दूंगा। नारी तो पुरूष की आत्मा है, मैं भरत को नहीं राम के लौटने तक श्री राम की आत्मा सीता को सिंहासन पर बैठाऊँंगा-
आत्मा हिं दाराः सर्वेषां दार संग्रहवर्तिचाम्॥ 
आत्मेयमिति रामस्य पालयिष्यति मेदिनीम्।।

                      (वा.रा.अयो.काण्ड-37/24)
परंतु वही कैकई चित्रकूट में 
कुटिल रानि पछितानि अधाई,
अवनि जमहिं जाँचत कैकई, महि न बीचु विधि मीचु न देई,  और तो क्या.... पशु-पक्षियों पर भी प्रभाव परिलक्षित होता है
वयरू बिहाइ चरहिं एक संगा, जॅह तँह मनहुँ सेन चतुरंगा
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सरनि सरोरुह जल बिहग, कूजत गुंजत भ्रंग।
बैर बिगत विहरत विपिन, मृग विहंग बहुरंग।।
इन व्यतुपत्तियों से यह स्पष्ट होता है कि चित्रकूट वास्तव में न केवल एक रमणीक स्थल है, बल्कि यहां पर आकर दर्शन मात्र से व्यक्ति की सभी अभिलाषाओं व संकटों का निवारण अपने आप हो जाता है। वैसे आधुनिक युग की बात करें तो चित्रकूट में आज भी शशरीर और अशरीर रमण करने वाले ़ऋषियों की श्रंखला भी इस भूमि को अपनी उष्मा से अभिसिंचित कर मानवों से लेकर वनस्पति व पशुओं के अंदर प्रेम रस की वर्षा करते हैं। इसलिए चित्रकूट में सदा से दैहिक दैविक भौतिक तापा, रामराज्य काहुहिं नही व्यापा की फलश्रुति होती दिखाई देती है। इसका साक्षात उदाहरण कोरोना काल में दिखाई दिया, जब प्रभु श्रीराम द्वारा पूजित व निवासित श्रीकामदगिरि परिक्षेत्र व मां मंदाकिनी के तटों पर निवास करने वालों के अंदर कोरोना नामक जहर ने अपना प्रभाव नही दिखाया और सभी लोग यहां पर राम राम का जाप करते जय चित्रकूट का नारा लगाते दिखाई दिए। 
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इंतजार कीजिए कल तक,,,,,,,

                                  
संदीप रिछारिया 



Friday, March 3, 2023

हमारे महान ऋषि! त्रिकालदशी महर्षि देवल

                                                     घर वापसी के नियम बनाने वाले महर्षि देवल  

                                                         


एक ऐसा ऋषि जिसे यह पता था कि आने वाला कलियुग बहुत भयंकर होगा। ईसाई व मुस्लिम आक्रमणकारी तलवार के जोर पर या फिर लालच देकर सनातन धर्म के लोगों का धर्म परिवर्तन करवाएंगे। इसी दौरान सनातन में भी कुछ तेजस्वी निकलेंगे जो भटके हुए लोगों को फिर से घर वापसी कराकर उन्हें सनातन धर्मी बनाएंगे। सतयुग में ही महर्षि देवल ने देवल स्मृति नामक ग्रंथ लिख सनातन लोगों की घर वापसी के लिए नियम बनाकर यह बता दिया था कि चारों वर्णों के लोग कैसे तप करके अपने धर्म में प्रत्यावर्तित हो सकते हैं।  

          मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति में धर्म-भ्रष्ट मनुष्य को पुनः लेने के कोई प्रवंध नही है। ऐसे में जब भविष्य में मुस्लिम आक्रमणकारी तलवार के जोर पर सनातनियों का धर्म परिवर्तन करेंगे तो उनकी पुनः हिंदू धर्म में वापसी कैसे होगी, यह विचार तपस्यारत देवर्षि देवल को आया। उन्होंने भविष्य को देखकर तत्परता के साथ कुल 96 श्लोकों में देवल स्मृति की रचना कर यह सुनिश्चित किया कि अगर कोई सनातनी अपने घर वापसी करता है तो उसके लिए नियम क्या होंगे। 

यह स्मृति सिन्ध पर मुसलमानी आक्रमण के कारण उत्पन्न धर्म परिवर्तन की समस्या के निवार्णार्थ लिखी गई थी। इसका रचनाकाल 7वीं शताब्दी से लेकर 10वीं शताब्दी के बीच होने का अनुमान है। कुछ इतिहासकारों द्वारा इसे प्रतिहार शासक मिहिर भोज के कालखंड का बताया है। इसमें केवल 96 श्लोक हैं। अनुमान है की सिंध प्रदेश के मुसलमानों के हाथ में चले जाने के बाद जब पश्चिमोतर भारत की जनता धड़ल्ले से मुसलमान बनायीं जाने लगी, तब उसे हिन्दू समाज में वापस आने की सुविधा देने के लिए इस स्मृति की रचना की गई।

याज्ञवल्क्य पर लिखी गई ‘मिताक्षरा’, अपरार्क, स्मृतिचन्द्रिका आदि ग्रंथों में देवल का उल्लेख किया गया है। उसी प्रकार देवल स्मृति के काफी उद्धरण ‘मिताक्षरा’ में लिये गये हैं। ‘स्मृतिचन्द्रिका’ में देवल स्मृति से ब्रह्मचारी के कर्तव्य, 48 वर्षो तक पाला जानेवाला ब्रह्मचर्य, पत्नी के कर्तव्य आदि के संबंध मे उद्धरण लिये गये हैं।

देवल स्मृति नामक 90 श्लोकों का ग्रंथ आनंदाश्रम में छपा है। उस ग्रंथ में केवल प्रायश्चित्तविधि बताया गया है। किंतु वह ग्रंथ मूल स्वरुप में अन्य स्मृतियों से लिये गये श्लोकों का संग्रह माना जाता है। इसका रचनाकाल भी काफी अर्वाचीन होगा क्योंकि इस स्मृति के 17-22 श्लोक तथा 30-31 श्लोक विष्णु के हैं, ऐसा अपरार्क में बताया गया है। अपरार्क तथा स्मृतिचन्द्रिका में ‘देव स्मृति’ से दायविभाग, स्त्रीधन पर रहनेवाली स्त्री की सत्ता आदि के बारे में उद्धरण लिये गये हैं। इससे प्रतीत होता है कि, स्मृतिकार देवल, बृहस्पति, कात्यायन आदि स्मृतिकारों का समकालीन रहे होंगे।

महर्षि देवल के बारे में प्रामाणिकता के साथ तो ज्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता है (कल्प व मन्वन्तर के अनुसार 3 देवल ऋषियों का वर्णन मिलता है परन्तु यह अभी शोध का विषय है कि किस देवल ने किस धाम पर तपस्या की थी ), परन्तु इस धाम के नाम और मान्यताओं के आधार पर कहा जा सकता है कि कौन से देवल नामक ऋषि ने चित्रकूट श्री कामदगिरि पर तपस्या की थी और उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् सूर्य ने कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी तिथि को अपने बाल रूप में उन्हें दर्शन दिए थे, तभी से इस धाम का नाम देवल ऋषि के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

यह भी मान्यता है कि देवलास का प्राचीन नाम देवलार्क  देवल ़अर्क था अर्थात देवल और अर्क (सूर्य) दोनों से मिलकर इस स्थान का नाम पड़ा। 

देवल (प्रथम) - 

हरिवंश पुराण के हरिवंश पर्व में अध्याय  3 श्लोक 44 व गरुण पुराण के आचार काण्ड में अध्याय 6 के अनुसार - 

देवर्षि देवल, जिन्हें असित और असित देवल के नाम से भी जाना जाता है वह देवल ऋषि प्रत्यूष नाम के वसु के पुत्र थे। कुल आठ वसु (आप, ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्यूष, प्रभास) का उल्लेख मिलता है । 

देवल (द्वितीय)  - 

 श्रीमद भागवद के छठवें स्कंध के  छठें अध्याय के श्लोक 20 से -

  कृशाश्वों दार्चिषि भार्यायं धूमकेशं जीजनत। 

  धीश गाया वेदशिरों देवल वमुन मनुम।। 

दक्ष प्रजापति की धृश्णा नामक पुत्री थी जिसका विवाह कृशाश्व ऋषि से हुआ था जिनसे एक पुत्र हुआ उसका नाम देवल हुआ। 

ऋषि देवल के बारे में अन्य कहानियां 

(1) कुछ समय बाद जयगीशव्य नाम के एक ऋषि ने ऋषि देवल से संपर्क किया और अपनी दीक्षा को पूरा करने के लिए आश्रय का अनुरोध किया। देवल अपनी शक्तियों को जयगीशव्य को दिखाना चाहते थे और इसलिए उन्होंने असामान्य स्थानों का दौरा करना शुरू कर दिया, जहां उन्होंने आश्चर्यजनक रूप से पाया कि ऋषि जयगीशव्य उनसे बहुत पहले उन स्थानों का दौरा कर चुके थे। तभी उन्हें पता चल सका कि जयगीशव्य की शक्तियाँ क्या हैं। तब ऋषि जयगीशव्य ने ऋषि देवल को सादगी और उसकी संपूर्णता का अर्थ सिखाया।

(3) कुछ समय बाद ऋषि देवल ने हूहू नाम के एक गंधर्व को मगरमच्छ बनने का श्राप दिया, जब गंधर्व ने उसे एक तालाब में स्नान करते समय परेशान किया। इस प्रकार हूहू मगरमच्छ बन गया और विष्णु ने उसे मार डाला जब उसने गजेंद्र के पैर पकड़ लि। 

(4) देवांग पुराण में, निर्माता भगवान ब्रह्मा ने दैवीय शक्तियों और मनुष्यों के लिए भी कपड़े बुनने के लिए ऋषि देवल की मदद ली। यद्यपि देवांग पुराण की हिंदू जीवन प्रणाली के पौराणिक क्रम में कोई प्रामाणिकता नहीं है, फिर भी, इस प्रकरण को हिंदू धर्म शास्त्र के कुछ ग्रंथों में प्रासंगिक माना गया था।

(4) एक बार रंभा - देवता की दिव्य नर्तकी ने अपने सुख के लिए ऋषि देवल को चाहा, जिसे ऋषि ने मना कर दिया। इस प्रकार, रंभा उससे क्रोधित हो गईं और उन्होंने ऋषि को निम्न जाति में जन्म लेने का श्राप दिया। इसीलिए, देवांग जाति में ऋषि देवल का जन्म हुआ और वे उस जाति के प्रधान व्यक्ति बने। उन्हें दिव्यांग, विमलंग और धवलंग नाम के तीन पुत्रों का आशीर्वाद मिला, जिन्होंने ऋषि को समाज के लाभ के लिए और दिव्य भगवानों के लाभ के लिए अद्भुत कपड़े बनाने और बनाने में मदद की।

(५) एक बार दिव्य ऋषि नारद जी ने ऋषि देवल से उन्हें स्पष्ट करने के लिए कहा कि ब्रह्मांड का जन्म कैसे होता है और जन्म और मृत्यु कैसे होती है और अंततः ब्रह्मांड का अंत कहां होता है। ऋषि देवल ने नारद जी को उत्तर दिया कि ब्रह्मांड का जन्म मूल पांच तत्वों - भूमि, वायु, अग्नि, जल और ब्रह्मांडीय प्रणाली से हुआ है। उन्होंने कहा कि सृष्टि और विनाश के लिए पांचों जिम्मेदार हैं। उन्होंने यह भी कहा कि शरीर भूमि से उत्पन्न होता है। ब्रह्मांडीय प्रणाली से कानय आग से आँखें हवा से जीवन और पानी से खून। दो आंख, नाक, दो कान, त्वचा, जीभ शरीर के पांच संवेदी अंग हैं। जबकि हाथ, पैर आदि पांच कर्मेंद्रियां हैं जो किसी को भी कर्म करने के लिए मजबूर करते हैं। इसलिए इस ऋषि द्वारा दिए गए स्पष्टीकरण से शरीर और मन के सिद्धांत प्रकाश में आए हैं।

     एक गंधर्व को देवल का अभिशाप

   एक बार देवल ऋषि ने हूहू नाम के एक गंधर्व को ग्रह (मगरमच्छ) बनने का श्राप दिया। इसलिए वह ग्राह बन गया और एक तालाब में रहने लगा। एक बार एक गजेंद्र वहां पानी पीने आया तो उसने अपना पैर खींच लिया और उसे गहरे पानी में ले गया। गजेंद्र ने श्री हरि की प्रार्थना की, हरि ने आकर गजेंद्र को बचाया और ग्राह को मार डाला। जैसे ही हरि ने ग्राह को मारा, वह सबसे सुंदर गंधर्व बन गया। उन्होंने श्री हरि की पूजा की और अपने लोक में चले गए।

गजेन्द्र भी भगवान के समान चार भुजाओं वाला हो गया। वह अपने पिछले जन्म में एक पांड्य वंशी राजा थे। उसका नाम इंद्रद्युम्न था। वह भगवान का बहुत बड़ा भक्त था इसलिए एक बार उसने अपना राज्य त्याग दिया और संन्यासी बन गया। एक दिन वे श्री हरि की पूजा कर रहे थे कि अगस्त्य मुनि अपने शिष्यों के साथ आए। उसने देखा कि एक व्यक्ति जिसे गृहस्थ होना चाहिए, उसने अपने कर्तव्यों को त्याग दिया है और वहाँ बैठकर पूजा कर रहा है। वह क्रोधित हो गया और उसने उसे शाप दिया, कि उसने हाथी के समान मन से ब्राह्मण का अपमान किया है इसलिए उसे हाथी बनना चाहिए।

यह कहकर अगस्त्य मुनि चले गए और राजा ने इसे अपना भाग्य मान लिया। अगले जन्म में उनका जन्म गजेन्द्र के रूप में हुआ। यह गजेंद्र एक बार एक तालाब से पानी पीने गया था जहाँ ग्राह ने उसका पैर पकड़ लिया और उसे तालाब में खींच लिया। उन्होंने 1,000 साल तक लड़ाई लड़ी। जब हाथी मुक्त नहीं हो सका, तो उसने हरि की प्रार्थना की और हरि ने ग्राह को मारकर उसे मुक्त कर दिया। इस प्रकार हरि ने उसे अपने हाथी योनी से मुक्त किया और उसे अपना पार्षद नियुक्त किया, साथ ही ग्राह भी अपनी ग्रह योनि से मुक्त हो गया।

बीसवीं और इक्कीसवीं शताब्दी में सर्वाधिक चर्चित स्मृति रही है देवल स्मृति। इसमें हिन्दू से मुसलमान या ईसाई बने व्यक्ति या समूह को पुनः कैसे स्व धर्म में लाया जाए इसकी व्यवस्था दी गयी है।

 

          देवलस्मृति का विरोध क्यों?

महर्षि देवल ने पतित या बलपूर्वक धर्मान्तरित व्यक्ति या समूह को कैसे पुनः सनातन पूजा पद्धत्ति (धर्म) में लाया जाए, इसकी व्यवस्था दी। इस व्यवस्था से सर्वाधिक परेशानी उन मजहबों को थी जो धर्मांतरण कराने में लगे थे और लगे हैं। अतः वे इसका सभी प्रकार से विरोध कर रहे थे।

दूसरा वर्ग वह था जो कट्टर धार्मिक था। जिसको नष्ट होते हिन्दू से लगाव नहीं था। घटती धार्मिक आबादी की जिनको चिंता नहीं थी।यह वर्ग बहुत प्रभावशाली और पूज्य होने के साथ साथ धार्मिक जगत में शीर्ष पर बैठा था। इसी वर्ग ने हिन्दू जनसंख्या को सर्वाधिक पीडि़त किया। यह वर्ग मालवीयजी और तिलकजी को भी सुनने को तैयार नहीं था।महर्षि देवल की चरणधूलि प्राप्त करने की योग्यता भी जिनमें नहीं थी वे उनकी स्मृति के विरुद्ध भाषण दे रहे थे।

यह काम धर्मशास्त्र से जुड़ा है पर विरोध करने वाले व्याकरण, साहित्य, दर्शन और अन्य विषय के थे। उनका आरोप था जो मुसलमान बन गया वह गोमांस खा लेता है। ऐसे व्यक्ति को हिन्दू नहीं बनाया जा सकता है। जबकि अगस्त्य ऋषि तो आतापी-वातापी राक्षस को भी खा कर पचा गए। उन्हें किसी ने धर्मबहिष्कृत नहीं किया। अंग्रेजों का काम धार्मिक विद्वान ही कर रहा था।

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देवल स्मृति के अनुसार घर वापसी के नियम 

धर्म भ्रष्टता के चार प्रकार 1-सुरा पान 2-गोमांस भक्षण 3-म्लेक्ष से दूषित 4-विधर्मी स्त्री-पुरुष से सम्बन्ध।

शुद्धि का वार्षिक उपाय - एक वर्ष तक चांद्रायण कर पराक व्रत करने वाला ब्राह्मण पुनःहिन्दू विप्र हो जाएगा। अन्य जाति का व्यक्ति इससे कम प्रायश्चित करेगा। यदि क्षत्रिय है तो वह एक पराक और एक कृच्छ्र व्रत करके ही शुद्ध हो जाएगा। वैश्य व्यक्ति आधा पराक व्रत से पुनः हिन्दू हो जाएगा। शूद्र व्यक्ति पांच दिन के उपवास से शुद्ध हो जाएगा। शुद्धि के अंतिम दिन बाल और नाखून अवश्य कटवाना चाहिए।(देवलस्मृति,7-10)

ब्राह्मण प्रायश्चित्त करके गो दान, स्वर्ण दान भी करे।(श्लोक13) इतना कर लेने के बाद उसे सपरिवार भोजन में पंक्ति देनी चाहिए कृ पंक्तिम् प्राप्नोति नान्यथा।(श्लोक14)

कोई समूह यदि एक वर्ष या इससे ज्यादा दिनों तक धर्मान्तरित रह गया हो तो उसे शुद्धि, वपन, दानके अलावा गंगा स्नान भी करना चाहिए-गंगास्नानेन शुध्यति।(15)।

विप्रों को सिंधु,सौबीर, बंग, कलिंग, महाराष्ट्र, कोंकण तथा सीमा पर जा कर शुद्धि करनी चाहिए।(श्लोक16)।

बेजोड़ चिंतन- बलपूर्वक दासी बनाने पर, गो हत्या कराने पर, जबरदस्ती कामवासना पूरा कराने पर, उनका जूठा सेवन कराने पर प्रजापत्य, चांद्रायण, आहिताग्नि तथा पराक व्रत से शुद्धि होगी। पन्द्रह दिन यव पीने से पुनः हिन्दू होगा।

कम पढ़ा लिखा व्यक्ति एक मास तक हाथ में कुशा लेकर चले और सत्य बोले तो वह शुद्ध हो अपने धर्म में प्रतिष्ठित हो जाएगा।।

आज से 52 सौ वर्ष पहले देवल ऋषि ने दी थी। इस व्यवस्था का पालन कर सनातन धर्मियों की फिर से हिंदू धर्म में वापसी कराई जा सकती है। 

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श्री महंत वरूण प्रपन्नाचार्य जी महराज,
 बड़ा मठ, रामघाट
चित्रकूट  

  हिंदू वास्तव में एक संस्कृति का नाम है, जिसे आसानी से दबाया नही जा सकता। हम लोग सदियों   से हैं और रहेंगे, यह बात और है कि लगातार बाहर से आने वालों ने हमें दबाने और धर्म परिवर्तित करने के लिए मजबूर किया। तलवार के जोर पर कुछ लोग परिवर्तित भी हुए। लेकिन धन्य हैं ऐसे ऋषि देवल जिन्होंने सतयुग में ही इस समस्या को देखकर वापस सनातनी बनने के लिए नियम कायदे बनाए। हम उनको बारंबार नमन करते हैं। 


                                                                             संदीप रिछारिया