Monday, February 10, 2020

वेलेंटाइन विशेष- चित्रकूट: काम नहीं राम की भूमि

श्रीराम ने चित्रकूट में की थी मां जानकी की पूजा
अपने हाथों से पुष्पों के आभूषण बनाकर किया था श्रंगार व पूजन  

रां ब्रहमनाद का वह स्वर जो सृष्टि के आरंभ से भूमंडल में गुंजायमान है। इस शब्द से निकलकर जब वह म से जुड़ा तो राम हो गया। अवध के राजकुमार राम के रूप में जब वह चित्रकूट आए तो वनवासी की तरह। मां केकैई से मिली सीख की वनवास में वनवासी के साथ रहना। प्रियतमा के साथ रहकर भी प्रेम रस में न डूबना, राम ने साकार कर दिखाया। दाम्पत्य जीवन का सर्वाधिक समय चित्रकूट में बिताने के दौरान राम ने यह दिखाया कि कैसे वह अपनी पत्नी के साथ सुमधुर क्षणों का स्वर्गीय आनंद ले सकते हैं।

विदेशी संस्कृति से ओतप्रोत युवा पीढ़ी के दिमाग में गंदगी भरने के लिए कुत्सित प्रयास लगातार जारी हैं। वेलेंटाइन डे वास्तव में हमारी संस्कृति को बर्बाद करने का मैकाले जैसा प्रयास है। वेलेंटाइन को संत बताकर प्रपोज डे, हग डे, रोज डे जैसे दिन बनाकर युवाओं के दिमाग में महिला व पुरूष शरीर के प्रति गंदगी भरने की गंदी मानसिकता है। जिन देशों में पिता, पुत्र, पत्नी, पुत्री व रिश्तेदारों के पास अपनों से मिलने का समय नहीं है। एक ही घर में अजनबियों की तरह रहते हैं। एक जीवन काल में दर्जनों विवाह करते हैं। यह उन्हीं के लिए उचित है। हम अपने आराध्य को जानें समझें और उसी हिसाब से आचरण करें। हमारे आराध्य श्रीराम व मां जानकी हैं। आइये जानते हैं कि उनके प्रेम का स्वरूप क्या था। 



आदि कवि महिर्षि वाल्मीकि, संत शिरोमणि तुलसीदासजी महराज या फिर सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला‘ सभी की लेखनी इस विशेष तथ्य और घटनाक्रम पर खूब चली, इतनी चली कि सभी ने भाव विहवल होकर उन विशेष क्षणों को न केवल जीवांत किया बल्कि यह भी सिद्व कर दिया कि प्रेम एक प्रक्रिया है, जो शास्वत है और उसमें काम को कोई स्थान नहीं। यह तो हर जीवधारी के अंदर बहती है। इस प्रक्रिया को अगर कायदे से रूपांतरित कर दिया जाए तो वह रावण जैसे राक्षसराज को मारने के लिए बड़े शस्त्र के रूप में भी काम आ सकती है।
महिर्षि वाल्मीकि ने अपने भाव व्यक्त किए ,,,
 मनः शिलाया स्तिलको गण्ड पाश्र्वे निवेशितः।
त्वया प्रणष्टे तिलके तं किलस्मर्तुं मर्हसि। (वा0रा0 5/40)


कविवर सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला‘ के शब्दों में कहें तो

‘‘ मातः दशभुजा विश्व ज्योति हूं मैं, आश्रित

हो विद्व शक्ति से है खल महिषासुर मर्दित

जन रंजन चरण तल, धन्य सिंह गर्जित

यह, यह मेरा प्रतीक मातः समझा इंगित

मैं, सिंह इसी भाव से करूंगा अभिनंदित‘‘

(अनामिका)

इस दृश्य को जब महाकवि तुलसीदास जी महराज ने अपने भावों से उकेरा तो पूरी भावनाएं साफ हो गईं,,
फटिक शिला मृदु विशाल, संकुल सुरतरू तमाल
 ललित लता जाल, हरित छवि वितान की
मंदाकिनी तटिनि तीर मंजुल मृग विहंग भीर
धीर मुनि गिरा गंभीर सामगान की। 
मधुकर पिक वरहिं मुखर सुन्दर गिरि निरझर झर
जल कन धन छाॅह छन प्रभा न भान की 
 सबरितु रितुपति प्रभाउ संतत बहै त्रिविध बाउ
 जनु बिहार वाटिका नृप पंचवान की।
विरचित तहं परनशाल, अति विचित्र लखनलाल
 निवसत जॅह नित कृपाल राम जानकी
निजकर राजीव नयन पल्लव दल रचित शयन
प्यास परस्पर पीयूष प्रेम पान की।
सिय अंगलिखै धातु राग सुमननि भूषण विभाग
तिलक करनि क्यों कहउं कला निधान की 
माधुरी विलास हास गावत जस तुलसिदास
बसति हृदय जोरी प्रिय परन प्रान की। 
( गीतावलि) 
महाकवि ने इस अतभुद प्रेमरस का वर्णन मानस में किया तो आनंद की रसवर्षा का कोई ओर- छोर न रहा
‘ एक बार चुनि कुसुम सुहाए, मधुकर भूषण राम बनाए।
सीतहिं पहिराए प्रभु सादर,बैठे फटकि शिला पर संुदर।।

लगभग तीनों महान कवियों ने अपनी भावना को व्यक्त करने के लिए एक ही स्थान व कथानक चुना। यह बात और है कि तीनों के कहने का ढंग अलग-अलग है। लेकिन इसका यर्थाथ तो यही निकलता है कि शेषावतार लक्ष्मण जी की अनुपस्थिति में प्रभु श्रीराम ने श्रंगारवन से अपने हाथों से फूल चुनकर उनके आभूषण बनाएं और फिर का माताजी का श्रंगार कर पूजन किया। पैरों में महावर, अक्षत व कुंकुम से तिलक लगाने के साथ ही सिंदूर भी मांग में भरा। तुलसीदास जी ने अपने दोहों में सादर शब्द का उपयोग बहुत ही सोच समझकर किया है। वह यह बताना चाहते हैं कि चित्रकूट विश्व की आध्यात्मिक राजधानी क्यों है! इसलिए कि यहां पर श्रीराम ने मां जानकी का श्रंगार व पूजन किया तो दूसरी ओर श्रुति कहती है कि यत्रु नारयंते पूजिते, रमंते तत्र देवता और चित्रकूट की भूमि पर बाकी देवताओं की बात छोड़िए स्वयं त्रिदेवों को भी एक नहीं कई बार अवतरित होना पड़ा। अगर हम श्री हरि विष्णु के अवतारों की बात करें तो न केवल श्री राम, परशुराम, हंस भगवान ने इस धरती पर विचरण किया बल्कि श्रीकृष्ण की उत्पत्ति का सीधा कारण भी इसी भूमि पर मौजूद है। 

वैसे चित्रकूट आदि शक्ति मां जगद्जननी का भी प्राचीन स्थल है। तांत्रिक लक्ष्मी कचव में तो साफ तौर पर लिखा है ‘ सुखदा मोक्षदा देवी चित्रकूट निवासिनी। भयं हरते सदा पाषाद् भवबंधाद् विमोचयेत्। 

मोक्षदा स्त्रोत पढ़ने पर ज्ञात होता है कि चित्रकूट प्रेम की भूमि है। शांति की भूमि है, यहां की भूमि काम से राम की ओर ले जाती है। मोक्षदा देवी की आराधना का पहला मंत्र प्राणी मात्र से प्रेम करना है। 


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