Thursday, April 4, 2013

द्वापरकाल से जारी है अनूठी परंपरा 'दीवारी'

संदीप रिछारिया, हमीरपुर

'सावन सजी कजिलिया, भादौं सजी पुछार, कातिक सजै मौनिया, धरे गऊ की पूंछ..' इस तरह की कूंकियों वाली आवाजें जिले के हर गांव व पुरवों में सुनाई दे रही हैं। भादौं की पंचमी को नैकेश्वर बाबा की पूजा व दशहरे की रात लाठियों को पूजने के बाद अब रातों रात दीवारी खेलकर मौनिये तैयार हो रहे हैं। श्री चित्रकूट धाम में बाबा कामतानाथ के दरवाजे हाजिरी लगाने के बाद फिर यह शहर और गांव की गलियों में अपना उल्लास भरा हुड़दंग बिखेरते खिचड़ी तक दिखेंगे।

कहते हैं कि द्वापर में कालिया के मर्दन के बाद ग्वालों ने श्री कृष्ण का असली रूप देख लिया था। श्री कृष्ण ने उन्हें गीता का ज्ञान भी छुटपन में दे दिया था। गो पालकों को दिया गया ज्ञान वास्तव में गाय की सेवा के साथ शरीर को मजबूत करना था। श्री कृष्ण ने उन्हें समझाया कि इस लोक व उस लोक को तारने वाली गाय माता की सेवा से न केवल दुख दूर होते हैं बल्कि आर्थिक सम्बृद्धि का आधार भी यही है। इसमें गाय को 13 वर्ष तक मौन चराने की परंपरा है। आज भी यादव (अहीर) और पाल (गड़रिया) जाति के लोग गाय को न सिर्फ मौन चराने का काम करते हैं, बल्कि दीवारी भी खूब खेलते हैं।

लोकध्वनि के सचिव डॉ. राम भजन सिंह कहते हैं कि बुंदेली लोकसंगीत का नायाब नमूना है दीवारी नृत्य और गायन। वैसे आज हमारी दीवारी भाषा और रागों की सीमा से परे होकर देश और विदेश में विचरण कर रही है। लेकिन सच्चाई यह है कि भले ही बुंदेली जन राम के उपासक हों पर वास्तव में वैष्णव भक्ति की दूसरी धारा कृष्ण की भक्ति यहां गांव- गांव में बहती है। इसका परिणाम है कि बुंदेलखंड के हर गांव में दीवारी की कम से कम एक टीम जरूर मिल जाती है। वह कहते हैं कि दीवारी के नृत्य में पैरों व कमर में बंधे घुंघरुओं की रुनझुन के साथ लाठियों की लड़ाई में शरीर में लोच, फुर्ती और चतुराई को बढ़ाती है वही इसका गायन चेहरे के ओज की वृद्धि करने वाला है।

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