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Tuesday, March 7, 2023

एक समग्र दृष्टिः क्या है चित्रकूट का अर्थ

                                         अस्य चित्रकूटस्य् 

                           

चित्रकूट का नाम उच्चारण करते ही मस्तिष्क में सर्वप्रथम आता है कि आखिर इस भूमि का नाम चित्रकूट क्यों है, इसका वास्तविक अर्थ क्या है, क्या यह केवल प्रभु श्री राम की 11 साल 6 महीने 18 दिनों की वह लीला भूमि है, जहां पर आकर प्रभु श्रीराम ने समाज के सबसे निम्न तबके से माने जाने वाले कोल किरातों से मित्रता की और देवराज इंद्र से पूजित ऋषियों के आश्रमों में जाकर उनके दर्शन किए। जानते हैं कि वास्तव में चित्रकूट शब्द के क्या अर्थ हैं और इसकी सीमा कहां तक है।  
वर्तमान चित्रकूट एक ओर किसी स्थान विशेष का नाम न होकर श्रीराम की वनवासकालीन दो प्रान्तों में विभक्त वन लीला भूमि का नाम माना जाता है। इसका केंद्र बिंदु भगवान श्रीराम के निवास करने वाले स्थान श्रीकामदगिरि पर्वत को मानते हुए, इसके चारो ओर चैरासी कोस के परिक्षेत्र को चित्रकूटधाम माना जाता है। संतों का मत है कि केन नदी से लेकर यमुना और यमुना से विध्यांचल की पर्वत श्रंखलाएं होते हुए फिर केन का उद्गम ही वास्तविक चित्रकूट है। शायद इन्हीं कारणो के चलते वर्ष 2000 में जब श्रीराम मंदिर आंदोलन के नायक पूर्व मुख्यमंत्री श्रीकल्याण सिंह जी चित्रकूट जिले को नाम दिया तो चार जिलों का नया मंडल चित्रकूटधाम के रूप में बनाया। इसका मुख्यालय बांदा को बनाया गया। स्थानीय तौर पर देखें तो रामघाट, नयागांव, कामता, खोही, चितरागोकुलपुर, सीतापुर सहित अन्य सभी स्थानों को चित्रकूट ही कहा जाता है।  वस्तुतः चित्रकूट, चित्र-विचित्र कूटों वाले कामदगिरि का ही पुरातन एवं सनातन नाम है। यही समस्त काव्य पुराणों में परिलक्षित होता है। जो श्रीराम आगमन पूर्व भी पूर्ण रूपेण प्रख्यात था। आदि कवि वाल्मीकि द्वारा उल्लिखित ‘चित्रकूट इति ख्यातो‘ से पुष्ट है। विचारणीय यह है कि इस स्थान का नाम चित्रकूट ही क्यों पड़ा? वैसे तो विद्वान पुरूष अपने अनुसार चित्रकूट नाम की अपने हिसाब से तमाम तरह से परिभाषाएं बताते हैं, लेकिन मेरे हिसाब से कुछ व्युत्पत्तियाँ निम्न हैं -
(1) चित्रः अशोकः वृक्षः आच्छादयते यस्मिन् स कूटः चित्रकूटः। 
(2) चित्रः अशोकः आल्हादः विलसति यत्र स कूटः चित्रकूटः। 
(3) चित्रः नाम अशोकः यस्य महिमा प्रभावो यस्य स कूटः चित्रकूटः। 
(4) चित्रः विचित्रो रूप दर्शनम् समग्रम् यस्मिन् स कूटः चित्रकूटः।
(5) चि नाम चित्तम् त्रायतेऽत्र तच्चित्रः स कूटः चित्रकूटः।
(6) चि नाम चित्तम् त्रः त्राणम् प्राप्नोति यत्र कूटः कूटस्थः स्थिरः स चित्रकूटः।
(7) यत्र चित्तस्य कूटत्वं शान्तिर्भवति स चित्रकूटः।
(8) चित् शक्तिः कूटस्थः यत्र स चित्रकूटः।
(9) यत्र प्रभोरेव चित्तम् स्थिरम् भवति स चित्रकूटः। 
(10) यत्र भक्तानाम् चित्तम् कूटस्थं भवति स चित्रकूटः।
उपरियुक्त व्युत्पत्तियाँ मान्य महर्षियों के आर्ष वचनों पर आधारित हैं जैसे ,,,,
‘चित्रः विचित्रो रूप दर्शनम् समग्रम् यस्मिन् स कूटः चित्रकूटः। 
पश्येममचलं भद्रे नाना द्विजगणायुतम्।
शिखरैः खमिवोद्विद्वैर्धातुमाद्भिर्विभूषितम्।।
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केचिद्रजत संकाशाः केचित्क्षतज संनिभाः।
पीतमाजिष्ठ वर्णाश्च केचिन्मणि वरप्रभाः।।
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पुष्पार्क केतकाभाश्च केचिंज्ज्योति रसप्रभाः। 
विराजन्तेऽचलेन्द्रस्य देशाधातुविभूषिताः ॥
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विचित्र शिखरे  ह्ास्मिन्रतवानमिस्म भामिनिः।
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शिलाः शैलस्यशोभन्ते विशालाः शतशोऽभितः।
 बहुला बहुलैर्वणै नीलपीत सितारुणः।।
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निशिभान्त्यचलेन्द्रस्य हुताशन शिखा इव।
 औषध्यः स्वप्रभालक्ष्म्या भजमानाः सहस्रशः।।
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वस्वौकसारां नलिनीमतीत्यैवोत्तरान्कुरून्। 
पर्वतश्चित्रकूटोऽसी बहुमूल फलोदकः।।
(वा.रा.अयो.काण्ड, सर्ग-94/4-5-6-16-20-21-26)

अर्थात-हे भमिनि सीते! इस चित्रकूट पर्वत की रमणीयता को देखो। जिसके पक्षिसंकुल गगनभेदी उत्तुङ्ग. शिखर अनेक धातुओं से सुशोभित हो रहे है। इसके प्रदेश चाँदी के सदृश श्वेत दिखाई पड़ रहे हैं तो कोई रूधिर की तरह लाल..... तो कोई पीत और मंजिष्ठ वर्ण के हैं, तो कोई इन्द्र नीलमणि के सदृश्य प्रतीत होते हैं। कहीं की भूमि पुखराज की तरह, कहीं की स्फटिक की तरह... नहीं की भूमि केवड़ा के पुष्प की तरह, कहीं की ताराओं की तरह चमकीली प्रतीत हो रही है, तो कहीं की पारद तरह दिखाई देती है। यह चित्रकूट प्रदेश भिन्न-भिन्न वर्णो की धातुओं के कारण विचित्र रूप वाला दिखाई देता है। इसलिये मै इससे प्रेम करता हूँ।
इस पर्वत के इधर-उधर अनेक वर्णो की विशाल शिलायें सुशोभित हो रही हैं। कोई लाल तो कोई पीली तो कोई सफेद है। रात्रि में पर्वत पर औषधियां अग्निशिखा सी प्रतीत होती हैं।  बहु फल-फूल मूल वाला चित्रकूट पर्वत कुबेर, इन्द्र और कुरू देश को भी अपनी शोभा से जीत रहा है। गोस्वामी जी के शब्दों में कहें तो 
शैल सुहावन कानन चारू, करि केहरि मृग बिहग बिहारू, ’’
विबुध विपिन जहँ लगि जग माहीं, देखि रामवन सकल सिहाही,,
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जो वन शैल सुभाय सुहावन, मंगलमय अति पावन-पावन। महिमा कहिय कवन विधि लाहू, सुख सागर जहं कीन्ह निवासू।।
कहि न सकहिं सुधा लस कामन, जो सत सहस होहि सहसानन,
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चारू विचित्र पवित्र विशेषी, बूझत भरत दिव्य सब देखी। 
                            - मानस 
सुधि अवनि सुहावनि आल-वाल, कानन विचित्र वारी विशाल
                                 - विनय पत्रिका 
‘यत्र प्रभोरेव चिन्तम् स्थिरम् भवति स चित्रकूटः। ‘
नं राज्य भ्रशंनं भद्रे न सुहृद्भिर्विना भवः ।
मनो में बांधते दृष्टवा रमणीयमिमं गिरिम्।।
अर्थात्ः  इस रमणीय चित्रकूट पर्वत को देखकर राज्य एवं मित्रों से बिछुड़ने का कष्ट हो नहीं होता।
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यदोह शरदोऽनेकास्त्वया सार्धमनिन्दिते।
लक्ष्मणेन च वत्स्यामि नमो शोकः प्रधर्षति।
विचित्र शिखरे ह्यास्मिन्रतवानस्मि भामिनि
अर्थात: हे सुन्दरि! तुम्हारे और लक्ष्मण के साथ अनेक वर्षों तक भी यदि मुझे रहना पड़े, तो मैं रहूंगा। इस विचित्र शिखर वाले पर्वत से मैं प्रेम करता हूँ।
(वा.रा.अयो.काण्ड-94/3-15-16)
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दर्शनं चित्रकूटरय मन्दाकिन्याश्च शोभने। 
अधिकं पुट्यासाच्य मन्ये तवच दर्शनात्।।
           (वा.रा.अयो.काण्ड-95/12)
अर्थातः चित्रकूट एवं मंदाकिनी का दर्शन और तुम्हारा सहयास अयोध्या वास से भी मुझे अच्छा लगता हैं। 
मानसकार के शब्दों में कहें तो,,,
अस कहि लया ठांउ देखरावा, 
थलु बिलोकि रघवुर सुख पावा।
महिमा कहिय कवनि विधि तासू, 
सुख सागर जहं कीन्ह निवासू ।
पय प्योधि तज अवध विहाई
जॅह सियराम रहे अरगाई। 
                -मानस
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सुधि अवनि सुहावनि आल बाल
              -विनय पत्रिका
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चित्रकूट पर राउर जानि अधिक अनुराग।
सखा सहित जनु रति पति आएउ खेलन फागु।।
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क्यों कहों चित्रकूट गिरि सम्मति महिमा मोद मनोहरताई। तुलसी जॅह बसि लखन राम सिय आनंद-अवधि अवध बिसराई।।
                                   -गीतावलि
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‘ यत्र चिन्तस्य कूटत्वं शान्तिर्भवति स चित्रकूटः‘
 यावता चित्रकूटस्य नरः श्रृंगाण्यवेक्षते। 
कल्याणानि समाधत्ते न मोहे कुरुते मनः।।

                  (वा.रा.अयो.काण्ड-54/30)
अर्थात- मनुष्य जहाँ से चित्रकूट पर्वत का शिखर देखता है, वहीं से उसका मन पुण्य कार्यो में लग जाता है फिर पापों की ओर नही जाता। 
वैसे इसी बात को सपाट शब्दों ने मानसकार ने भी कहा है,,
अवलोकत अपहरत विषादा में या: विनय पद‘ सब सोच विमोचन चित्रकूट,, कलि हरन-करन कल्यान बूट में यही कहा गया है।
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अब चित चेति चित्रकूटहिं चलु,
शैल-श्रृंग भव भंग-हेतु लखु दलन कपट पाखण्ड दंभ दलु।
                                     (विनय पत्रिका) 
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नदी पनच सर सम दम दाना, सकल कलुष कलि साउज नाना                         
                       या 
      ‘जाई न वरन रामवन चितवत चित हर लेत
                                  (गीतावलि) 

चित्रः अशोकः आल्हाद विलसति यत्र स कूटः चित्रकूटः
सर्वनाश करने वाले शोक के सम्बंध में आदि कवि का कथन है       शोको नाशयते धैर्य शोको नाशयति श्रुतम्।
शोको नाशयते सर्व नास्ति शोक समे रिपुः।।
                     (वा.रा. 2/62/15) 
पर कामद गिरि मानव का ही नही स्वयं श्री हरि का भी शोक हरण करता है। प्रस्तुत है प्रभु का ही स्वीकारोक्ति वाक्य
‘लक्ष्मणेन च वत्स्यामि न मां शोकः प्रधर्षति‘
                         (वा.रा. 2/94/15)
 भामिनि! तुम्हारे और लक्ष्मण के साथ शोक रहित (आल्हाद से) अनेकों वर्षों तक इस पर्वत पर रह सकता हूँ। 
गोस्वामी जी भी कहते है --------(विनय पत्रिका)
‘ सब सोच विमोचन चित्रकूट‘
 भैया भरत तो प्रत्यक्षदर्शी है, वह जब चित्रकूट आकर दूर से देखते हैं तो मानसकार कुछ इस तरह से प्रस्तुति देते हैं। 
राम शैल वन देखन जाही, 
जहं सुख सकल सकल दुख नाही,

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यत्र भक्तानाम् चित्तं कूटस्थं भवति स चित्रकूटः
 अति मात्रमयं देशो मनोज्ञः प्रतिभाति मे। 
तापसानां निवासोऽयं व्यक्तं स्वर्ग पथोऽनय
                   (वा.रा.अयो.काण्ड-93/18)
चित्रकूट यात्रा में भैया भरत कहते है- यह देश मुझे बहुत ही मनोहर जान पड़ रहा है। निष्पाप! यह तपस्वियो का स्थान है, स्पष्ट यह स्वर्ग है। अधिक क्या कहूँ.....? कैकेई अम्बा को ही लें- जिन्हें स्वयं महाराज श्री दशरथ ही क्या सभी गणमान्य नागरिकों ने समझाया था। महर्षि वशिष्ठ तो बल्कल वस्त्र धारिणी सीता को देखकर धमकीे ही दे बैठे थे- अरी कुल कलंकिनी! तू महाराज को धोखा दे कर सीता को भी बन भेजना चाहती है...? मैं नहीं जाने दूंगा। नारी तो पुरूष की आत्मा है, मैं भरत को नहीं राम के लौटने तक श्री राम की आत्मा सीता को सिंहासन पर बैठाऊँंगा-
आत्मा हिं दाराः सर्वेषां दार संग्रहवर्तिचाम्॥ 
आत्मेयमिति रामस्य पालयिष्यति मेदिनीम्।।

                      (वा.रा.अयो.काण्ड-37/24)
परंतु वही कैकई चित्रकूट में 
कुटिल रानि पछितानि अधाई,
अवनि जमहिं जाँचत कैकई, महि न बीचु विधि मीचु न देई,  और तो क्या.... पशु-पक्षियों पर भी प्रभाव परिलक्षित होता है
वयरू बिहाइ चरहिं एक संगा, जॅह तँह मनहुँ सेन चतुरंगा
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सरनि सरोरुह जल बिहग, कूजत गुंजत भ्रंग।
बैर बिगत विहरत विपिन, मृग विहंग बहुरंग।।
इन व्यतुपत्तियों से यह स्पष्ट होता है कि चित्रकूट वास्तव में न केवल एक रमणीक स्थल है, बल्कि यहां पर आकर दर्शन मात्र से व्यक्ति की सभी अभिलाषाओं व संकटों का निवारण अपने आप हो जाता है। वैसे आधुनिक युग की बात करें तो चित्रकूट में आज भी शशरीर और अशरीर रमण करने वाले ़ऋषियों की श्रंखला भी इस भूमि को अपनी उष्मा से अभिसिंचित कर मानवों से लेकर वनस्पति व पशुओं के अंदर प्रेम रस की वर्षा करते हैं। इसलिए चित्रकूट में सदा से दैहिक दैविक भौतिक तापा, रामराज्य काहुहिं नही व्यापा की फलश्रुति होती दिखाई देती है। इसका साक्षात उदाहरण कोरोना काल में दिखाई दिया, जब प्रभु श्रीराम द्वारा पूजित व निवासित श्रीकामदगिरि परिक्षेत्र व मां मंदाकिनी के तटों पर निवास करने वालों के अंदर कोरोना नामक जहर ने अपना प्रभाव नही दिखाया और सभी लोग यहां पर राम राम का जाप करते जय चित्रकूट का नारा लगाते दिखाई दिए। 
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इंतजार कीजिए कल तक,,,,,,,

                                  
संदीप रिछारिया 



Monday, January 18, 2010

पृथक राज्य के मुद्दे पर गोलमाल जबाव दे गये मंत्री जी

चित्रकूट। पृथक बुंदेलखंड राज्य के मुद्दे को केंद्रीय मंत्री ने अपना मुद्दा बताते हुए कहा सरकार में रहने के कारण काफी बातें सोच समझकर बोलनी पड़ती है। उन्होंने बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा व बुंदेलखंड एकीकृत पार्टी के साथ ही बुंदेलखंड की मांग करने वालों को उचित ढंग से बात उठाने की नसीहत दी। प्रदीप जैन ने कहा कि पृथक राज्य बनाने के लिए अभी और भी ज्यादा जन जागरुकता की आवश्यकता है। साथ ही बरगढ़ से पावर प्लांट के स्थानांतरण के सवाल पर मंत्री ने कहा कि इस मामले की कोई जानकारी नहीं है। केंद्रिय मंत्री ने चित्रकूट को विलक्षण तीर्थ स्थान बताते हुये कहा कि यह स्थान बुंदेलखंड की नाक है और इसका विकास सभी को साथ मिलकर करना पड़ेगा।